Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 511
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४६८] परिशिष्ट-७ धर्म का स्वरुप निश्चय से जो मोह के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले मानसिक विकल्प समूह से तथा वचन एवं शरीर के संसर्ग से भी रहित जो शुद्ध आनन्दरुप आत्मा की परिणति होती है, उसे ही धर्म इस नाम से कहा जाता है। लोक में सब ही प्राणियों ने चिरकाल से जन्म-मरणरुप संसार की कारणीभूत वस्तुओं के विषय में सुना है, परिचय किया है, तथा अनुभव भी किया है; किन्तु मुक्ति की कारणीभूत जो शुद्ध आत्मज्योति है उसकी उपलब्धि उन्हें सुलभ नहीं हैं। जिस प्रकार अभेद स्वरुप से अग्नि में उष्णता रहती है, उसी प्रकार आत्मा में ज्ञान है; इस प्रकार की प्रतीति का नाम शुद्ध सम्यग्दर्शन, और उसी प्रकार से जानने का नाम सम्यग्ज्ञान हैं; और इन दोनों के साथ उक्त आत्मा के स्वरुप में स्थित होने का नाम सम्यक्चरित्र है। जो भव्यजीव भ्रम से रहित होकर अपने को कर्म से अस्पृष्ट, बन्ध से रहित, एक, परके संयोग से रहित तथा पर्याय के सम्बन्ध से रहित शुद्ध द्रव्यस्वरुप देखता है उसे निश्चय शुद्धनय पर निष्ठा रखनेवाला समझना चाहिये। सम्यग्ज्ञानरूप अग्नि के निमित्त से शरीररुप सांचे में से कर्मरुप मैनमय शरीर के गल जाने पर आकाश के समान शुद्ध अपने चैतन्य स्वरुप को देखनेवाला योगी सिद्ध हो जाता है। निश्चय से देखा जाये तो जीव कर्मबन्धन से रहित शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा है, उसका किसी भी बाह्य पर पदार्थ से प्रयोजन नहीं है। केसी भी बाह्य पर पदार्थ से प्रयोजन नहीं है। - पद्मनंदि पंचविंशतिका समाधिमरण का स्वरुप सम्यग्ज्ञानी पुरुष का यह सहज स्वभाव ही है कि वह समाधिमरण की ही इच्छा करता है, उसकी हमेशा यही भावना रहती है। अन्त में मरण समय निकट आने पर वह इस प्रकार सावधान होता है जिस प्रकार वह सोया हुआ सिंह सावधान होता है- जिसको कोई पुरुष ललकारे कि हे सिंह! तुम्हारे ऊपर वैरियों की फौज आक्रमण कर रही है, तुम पुरुषार्थ करो और गुफा से बाहर निकलो। जब तक वैरियों का समूह दूर है तब तक तुम तैयार हो जाओ और वैरियों की फौज जीत लो। महान पुरुषों की यही रीति है कि वे शत्रु के जागृत होने से पहले तैयार होते हैं। उस पुरुष के ऐसे वचन सुनकर शार्दूल तत्क्षण ही उठा और उसने ऐसी गर्जना की कि मानों आषाढ मास में इन्द्र ने ही गर्जना की हो। मृत्यु को निकट जानकर सम्यग्ज्ञानी पुरुष सिंह की तरह सावधान होता है और कायरपने को दूर से ही छोड़ देता है। संसार में अब तक काल ने किसको छोड़ा है और अब किसको छोड़ेगा? हाय! हाय!। देखो, आश्चर्य की बात कि आप निर्भय होकर बैठे हो, यह आपकी अज्ञानता ही है। आपकी क्या होनहार है ? यह मैं जानता हूँ। इसलिए आपसे पूछता हूँ की आपको अपना और पर का कुछ ज्ञान भी है ? हम कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? यह पर्याय पूर्ण कर कहाँ जायेंगे? पुत्रादि से प्रेम करते हैं सो वे भी कौन हैं ? हमारा पुत्र इतने दिन तक (जन्म लेने से पहिले) कहाँ था, जो इसके प्रति हमारी ममत्वबुद्धि हुई और हमें इसके वियोग का शोक हुआ? इन सब प्रश्नों पर सावधानी पूर्वक विचार करो और भ्रमरुप मत रहो। - पं. गमानीराम जी सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दले ते । मणि मन्त्र तन्त्र बहु होई, मरतें न बचावै कोई ।। - छहढाला : पं. दौलतराम जी Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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