Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
४७८]
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
bi bü
२२. कोई देवादि पूजा करने से धन, आजीविका , स्त्री, पुत्रादि देने में समर्थ नहीं हैं। पृ. ४७ २३. जिसके एक भी मद हो, वह सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है।
पृ. ४९ २४. हे आत्मन् ! तेरा स्वभाव तो सकल लोकालोक को जाननेवाला केवलज्ञानरुप हैं। पृ. ५० २५. मिथ्यादर्शन जनित मिथ्याभाव जीव को अपना स्वरुप भुलाकर ऐश्वर्य में उलझाकर नरक में पहुँचा
देता है। २६. तप तो वह है जिससे कर्मशत्रुओं के उदय को जीतकर शुद्धात्मदशा में लीन हो जाये। पृ. २७. जिसके पच्चीस दोष रहित आत्मा का श्रद्धानभाव है उसी के निश्चय सम्यग्दर्शन होने का नियम है। पृ. ५८ २८. मेरा स्वरुप तो ज्ञाताद्रष्टा है। मुनिपना-क्षुल्लकपना भी पुद्गल का भेष है। २९. पांच पापो का अभाव होना ही चारित्र है। ३०. अपने ज्ञायक भावरुप स्वभाव में चर्या है उसी का नाम स्वरुपाचरण चारित्र है।
पृ. ८८ ३१. मेरा उपार्जन किया-हुआ मेरा कर्म ही वैरी है।
पृ. १५८ ३२. मिथ्यादर्शन के उदय के जोर से बड़ा भ्रम है तथा अनंतानुबंधी कषाय के उदय से अभिमान है, वह थोड़े दिनों में ही नरक का नारकी बना देगा।
पृ. १८२ ३३. अनाकुलता लक्षण है जिसका ऐसा स्वाधीन अनन्तज्ञान, वह ही सुख है।
पृ. २२३ ३४. जगत का स्वभाव चिन्तवन करने से संसार परिभ्रमण से भय लगने लगता है, तथा शरीर का स्वभाव चिन्तवन करने से शरीर से रागभाव का अभाव होता है।
पृ. २२४ इस जीव ने अनादिकाल से मिथ्यात्व नाम के कर्म के वश में होकर अपने स्वरुप की और पर द्रव्यों के स्वरुप की पहिचान नहीं की। जो पर्याय कर्म के उदय से प्राप्त की उसी पर्याय को अपना स्वरुप जान लिया।
पृ. २२९ ३६. मैं एक जाननेवाला, ज्ञायकरुप, अविनाशी, अखण्ड, चेतनालक्षण, देहादि समस्त पर द्रव्यों से
भिन्न आत्मा हूँ । रागद्वेष, काम, क्रोध, मद, लोभादि कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मेरे ज्ञायक स्वभाव में विकार हैं। वे मेरा रुप नहीं है, पर हैं
पृ. २२९ ३७. अब भगवान पंच परमेष्ठी की शरण ग्रहण करके अपने अजर, अमर, अखण्ड, ज्ञाता दृष्टा स्वभाव को ग्रहण करो। ऐसा अवसर पुनः प्राप्त होना दुर्लभ है।
पृ. २३२ ३८. जातिकल में अहंकार करना मिथ्यादर्शन है। हे आत्मन! तुम्हारा जाति-कल तो सिद्धों के समान
पृ. २३४ ३९. भगवान के परमागम के सेवन के प्रभाव से मेरा आत्मा रागद्वेष आदि से भिन्न अपने ज्ञायक स्वभाव में ही ठहर जाय, रागादि के वशीभूत नहीं हो, वही मेरे आत्मा का हित है। पृ. २४३
गों में मिला हुआ होने पर भी एक आत्मा का भिन्न अनुभव होना, वही ज्ञानोपयोग है। पृ. २४३ ४१. समस्त परिग्रह में आत्मबुद्धि का मूल मिथ्यात्व नाम का परिग्रह ही है।
पृ. २४७ सम्यक्त्व बिना जो मिथ्यादृष्टि है वह जिनराज की पूजन करे, निर्ग्रन्थ गुरु की वंदना करे, समोशरण में जाये, जिनागम का अभ्यास करे उत्कृष्ट तप करे तो भी अनन्तकाल तक संसार में ही निवास करता रहेगा।
पृ. २५३ ४३. अपने चैतन्यस्वरुप आत्मा को राग-द्वेष आदि दोषों से लिप्त नहीं होने देना वह अपने आत्मा का वैयावृत्य है।
पृ. २५५
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com