Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 506
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार [४६३ ही पुरुषों ने अनेक शास्त्र पढ़े हैं, वचनों से अनेक जीवों को शुभ मार्ग का उपदेश देते हैं, बहुत समय से सिद्धान्त ग्रन्थ सुनते आये हैं तो भी उनके सत्यार्थ श्रद्धान-ज्ञान आचरण नहीं होता है, विपरीत मार्ग से नहीं छूटते, हैं - वह सब अन्याय का व अभक्ष्य भोजन करने का फल है। मुनीश्वरों के तो आहार की शुद्धता ही प्रधान है, तथा श्रावक के भी समस्त बुद्धि की शुद्धता का कारण एक भोजन की शुद्धता को ही जानो। आहार के लंपटी के योग्य-अयोग्य का, शोधने का, नेत्रों से देखने का स्थिरपना नहीं होता है। धैर्य रहित होकर शीघ्रता से ही भोजन करता है। जिह्वा का लंपटी मान, सम्मान, सत्कार, अपने पद की योग्यता, उच्चता आदि नहीं देखता है; मीठा भोजन मिल जाने को ही परम निधियों का लाभ होना गिनता है। भोजन का लंपटी मिष्ट भोजन देनेवाले के आधीन होकर माता-पिता, स्वामी , गुरु, का उपकार भूल जाता है तथा उनका अपकार करने लगता है। भोजन के लंपटी की विनय उसके अपने स्त्री-पुत्र भी नहीं करते हैं। भोजन के लंपटी को धर्म का श्रद्धान भी नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि तो आत्मीक सुख को ही सुख जानता है, उसको तो इंद्रियों के विषयजनित सुख में अत्यंत अरुचि होती है। जिसे सुंदर भोजन में ही सुख दिखता है वह तो विपरीत ज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है। जिह्वा का लंपटी महाभिमानी उच्चकुली भी नीचों की चाटुकारता- प्रशंसा करता है। भोजन का लंपटी दीन होकर औरों का मुख देखता फिरता है, याचना करता है, नहीं करने योग्य कार्य भी करता है। एक भोजन की चाह कर-कर के शालिमच्छ (तन्दुलमच्छ) सातवें नरक में जाता है, तथा अनेक प्राणियों का भक्षण करके महामच्छ भी सातवें नरक में जाता है। देखो-सुभौम नाम का चक्रवर्ती भी देवोपनीत दशांग भोगों से तृप्त नहीं हुआ, किसी विदेशी के लाये फल के रस की गृद्धता से कुटुम्ब सहित समुद्र में डूबकर सप्तम नरक में गया, औरों की क्या कथा कहें ? __ ऐसे जिनेन्द्र के वचनरुप अमृत का पान करने से भी यदि तुम्हारी आहार में-रसवान भोजन में गृद्धता नष्ट नहीं हुई है, तो जानते है कि अभी तुम्हें असंख्यात काल अनन्तकाल संसार में ही परिभ्रमण करना है; तथा क्षुधा, तृषा, रोग, वियोग, जन्म, मरण अनन्तबार भोगना है। यदि तुम इस प्रकार विचारते हो-मैं तो भोजन-पान करके क्षुधा-तृषा को मिटाकर तृप्त हो जाऊँगा, किन्तु आहार से कभी तृप्ति नहीं होती। क्षुधा तृषा की वेदना तो असाता कर्म के नाश होने पर मिटेगी, आहार करने से नहीं घटेगी, आहार करने से तो अधिक गृद्धता बढ़ेगी। जैसे अग्नि ईधन से तृप्त नहीं होती, समुद्र नदियों से तृप्त नहीं होता, उसी प्रकार आहार से भी तृप्ति नहीं होती, लालसा अधिक बढ़ती हैं। लाभान्तराय के अत्यंत क्षयोपशम से उत्पन्न अत्यंत बल-वीर्य-तेज-कान्ति करनेवाला मानसिक आहार असंख्यातकाल तक स्वर्ग में इन्द्र-अहमिंद्र का सुख भोगा तो भी क्षुधा वेदना की अभावरुप तृप्ति नहीं हुई। चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र प्रतिनारायण, भोगभूमि के मनुष्यादि को लाभान्तराय-भोगान्तराय Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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