Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 508
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार [४६५ ये तिर्यंचगति-मनुष्यगति में जो क्षुधा-तृषा रोगादि के घोर दुःख अनन्तकाल से भोग रहे हो, वह सब आहार की लंपटता का प्रभाव है। जिस-जिसने आहार की लंपटता छोड़ी है वे क्षुधादि वेदना रहित-कवलाहार रहित दिव्य देव हुए हैं। यदि अभी इस वेदना से दुःखी हो रहे हो तो आहार के त्याग करने में ही दृढ़ता धारण करो, कुछ थोड़े समय में ही वेदना रहित होकर कल्पवासी देवों में जाकर उत्पन्न हो जाओगे; किन्तु आहार भक्षण करके तो वेदना रहित नहीं होवोगे। समस्त दुःखो का मूल कारण इस जीव को एक शरीर का ममत्व है। इसकी ममता से इनकी रक्षा के कारण से ही अनन्तानन्त काल तक दुःख भोगे हैं। जितने क्षुधा-तृषा- रोगादि परिषहों के दुःख हैं, वे समस्त एक देह की ममता के कारण से हैं। जो महापुरुष देह में ममता के त्यागी हुए हैं उन्हें हाड़-मांस-चाममय महादुर्गन्धित रोगों की भरी देह धारण नहीं करना पड़ती। जब तक संसार का अभाव नहीं होता तब तक इन्द्रादि देवों की दिव्य देह प्राप्त होती है, उसके बाद शील-संयम आदि सामग्री पाकर निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। देह की वेदना से द:ख हो रहे हो तो शीघ्र ही देह की ममता-लालसा छोड दो. जिससे देह नहीं धारण करना पड़े। यदि आहार की चाह से दुःखी हो रहे हो, तो आहार का त्याग कर दो; जिससे फिर क्षुधा-तृषादि वेदना से आहार ग्रहण नहीं करना पड़े। क्रम से देह को इस तरह कृश करो, जिससे वात-पित्त-कफ का विकार मंद होता जाय, परिणामों की विशुद्धता बढ़ती जाय। इस प्रकार आहार के त्याग का क्रम पहले कहा ही है। बाद में अन्त समय में जितनी शक्ति हो उसके अनुसार जल का भी त्याग करना। ___ अंतिम समय में जब तक शक्ति रहे तब तक पंच नमस्कार मंत्र का तथा बारह भावनाओं का स्मरण करना। जब शक्ति घटने लग जाये तो अरहन्त नाम का ही, सिद्ध नाम मात्र का ही ध्यान करना। जब शक्ति नहीं रहे तब धर्मात्मा, वात्सल्य अंग के धारक, स्थितिकरण कराने में होशियार ऐसे साधर्मी निरन्तर चार आराधना व पंच नमस्कार का मधुर स्वरों से बड़ी धीरता से श्रवण करावें, जैसे आराधक के निर्बल शरीर में व मस्तक में वचनों से खेद या दुःख उत्पन्न न हो तथा सुनने में चित्त लग जाय उस प्रकार श्रवण करावें। बहुत आदमी मिलकर कोलाहल नहीं करें एक-एक साधर्मी अनुक्रम से धर्म श्रवण व जिनेन्द्रनाम स्मरण करावे। आराधक के निकट बहुत जनों का व सांसारिक ममत्व-मोह की कथा-वार्ता करनेवालों का आगमन रोक देवे। पंच नमस्कार या चार शरण इत्यादि वीतराग कथा सिवाय नजदिक में अन्य कोई चर्चा नही करे। दो चार धर्म के धारक सिवाय अन्य का समागम नही रहे। आराधक भी सल्लेखना के पाँच अतिचार दूर से ही त्याग दे। उन पाँच अतिचारों को कहनेवाला श्लोक कहते है: जीवितमरणाशंसे भयमित्रस्मृतिनिदाननामामः । सल्लेखनातिचाराः पञ्च जिनेन्द्रैः समादिष्ट: ।।१२९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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