Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 502
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार] [४५९ जो उपकारी है, प्राणों के समान प्रिय हैं, जिनके साथ रहने से अपना जीवन सफल मानते थे ऐसे स्त्री, पुत्र, मित्र, स्वामी, सेवक आदि के वियोग हो जाने का दुःख; वाल्य अवस्था में पुत्री के विधवा हो जाने का दुःख; आजीविका भ्रष्ट हो जाने का, धन चोरी चले जाने का, अतिनिर्धन होने का, पेट भर भोजन नहीं मिलने का, दुष्ट स्त्री-कपूत पुत्र मिलने का. बांधवों में अपमान होने का. गणवान स्वामी के वियोग हो जाने का, तथा अपना अपवाद होने का कलंक लगने का बड़ा दुःख भोगता है। इसलिये हे धीर! यहाँ समाधिमरण के अवसर में थोड़ी सी वेदना क्या है ? कुछ भी नही है। कर्म के उदय की बलबत्ताः कर्म के उदय से मनुष्य जन्म में अग्नि में जल जाता है; सिंह, व्याघ्र ,सर्प,दृष्ट हाथी आदि द्वारा खा लिया जाता है; हाथ, पैर, कान नाक छेद (काट) दिये जाते हैं, शूली चढ़ाये जाते हैं, नेत्र निकाल लिए जाते हैं, जिह्वा निकाल दी जाती हैं। पाप कर्म के उदय से मनुष्य जन्म में भी घोर दुःख भोगता है; दुष्ट बैरियों द्वारा डंडों से, वेंतो से, मुद्गरों से, मुसंडों से, चमीटों से, शांकलों से पीटे जाते हैं मारे जाते हैं शस्त्रों से चीर दिये है; लात, घमूका, ठोकरों की मार, पैरों की मार, कुचला जाना दिया जाना आदि सब पराधीन होकर भोगता है। यदि स्वाधीन होकर कर्म के उदयजनित शत्रु को एक बार साम्यभावों से भोग ले तो दुःखों का पात्र नहीं होगा। समस्त रोग व कष्ट अनेकबार भोगे हैं। अब तुम्हारा यह रोग शीघ्र ही निर्जरित जायेगा। रोग हुए बिना ऐसे दुष्ट जीर्ण शरीर से छूटना नहीं होता, देह से ममता नहीं घटती, धर्म में परीति नहीं बढ़ती; अतः रोग जनित वेदना को उपकार करनेवाली जानकर हर्ष ही करो। हे धीर! तुमने संसार में जितने दुःख भोगे हैं, उसका अनन्तवा भाग भी तुम्हारा यह दुःख नहीं है। अब इस अवसर में तुम कायर होकर धर्म को मलिन क्यों करते हो ? जब तुमने कर्म के वश होकर चारों गतियों में घोर वेदना भोग ली है, तब यहाँ धर्मरुप तपव्रत-संयम धारण करने पर वेदना भोगने का भय क्यों करते हो ? कर्म के वश होकर जैसी वेदना अनन्तबार भोगी है वैसी वेदना धर्म की रक्षा के लिये यदि एकबार समभावों से सहन कर लो तो बहुत बड़ी निर्जरा हो जायगी। हे धीर! तुम भय करो या भय नहीं करो, इलाज करो या नहीं करो, प्रबल कर्म का उदय आने से तो नहीं रुकेगा। इलाज भी कर्म का मंद उदय होने पर ही कार्य करता है। पाप का प्रबल उदय होने पर अत्यंत शक्तिवान औषधि भी बहुत सावधानी से प्रयोग में लाने पर भी वेदना का नाश नहीं कर सकती है। जो असंयमी योग्य-अयोग्य सब कुछ खानेवाले है, त्याग-व्रत रहित हैं, रात-दिन जब सभी प्रकार से रोग को दूर करने का इलाज करते हैं तो भी वे कर्म का प्रबल उदय होने पर रोग रहित नहीं हो पाते है; तब तुम संयम-व्रत सहित, अयोग्य भक्षण के त्यागी, आकुलित होकर कैसे रोग रहित होने की कल्पना करते हो? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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