Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार
[२५९ सहित आता है। साथ में साढ़े बारह करोड़ जाति के बाजों की मीठी ध्वनि, असंख्यात देवों द्वारा किया जानेवाला जय-जयकार शब्द , अनेक ध्वजा, उत्सव सामग्री तथा करोड़ों अप्सराओं का नाचते हुए उत्सव, करोड़ों गंधर्व देवों के साथ गाते हुए आता है।
इंद्र का रहने का पटल यहाँ से असंख्यात योजन ऊपर तथा असंख्यात योजन ही तिर्यक दक्षिण दिशा में है। वहाँ से जम्बूद्वीप तक असंख्यात योजन उत्सव करते हुए आकर, नगरी की प्रदक्षिणा देकर, इंद्राणी प्रसूतिगृह में जाकर, वहाँ माता को माया द्वारा निद्रा में सुलाकर, वियोग के दु:ख के भय से अपनी देवत्व शक्ति द्वारा दूसरा बालक बनाकर वहाँ रखकर, तीर्थंकर बालक को बड़ी भक्ति से लाकर इंद्र को सौंप देती है। उस समय बाल तीर्थंकर को देखकर इंद्र को तृप्ति नहीं होती, तब वह अपने एक हजार नेत्र बनाकर देखता है। फिर वहाँ ईशान आदि स्वर्गों के इन्द्र, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों के इंद्रादि असंख्यात देव अपनी-अपनी सेना, वाहन, परिवार सहित आते हैं।
सौधर्म इंद्र ऐरावत हाथी के ऊपर बैठकर भगवान (बाल तीर्थंकर ) को गोद में लेकर गिरि सुमेरु की ओर चलता है। वहाँ ईशान इन्द्र छत्र लिये रहता है, सनतकुमारमहेन्द्रकुमार चमर दुराते हुए, अन्य असंख्यात देव अपने-अपने नियोग के अनुसार सावधान होकर बड़े उत्सव पूर्वक मेरुगिरि के पाण्डुकवन में पहुँचते हैं। वहाँ पाण्डुक शिला के ऊपर अकृत्रिम सिंहासन है, उस पर जिनेन्द्र ( बाल तीर्थंकर ) को विराजमान करते हैं। फिर पाण्डुकवन से लगाकर क्षीर समुद्र तक दोनों ओर देव पंक्तिबद्ध होकर खड़े हो जाते हैं।
क्षीर समुद्र मेरुपर्वत की भूमि से पाँच करोड़, दश लाख, साढ़े गुनपचास हजार योजन की दूरी पर है। उस समय मेरु की चूलिका से दोनों ओर मुकुट, कुडंल, हार, कंकण आदि अद्भुत रत्नों के आभूषण पहिने हुए देवों की पंक्ति क्षीर समुद्र तक कतार बांधकर हाथोंहाथ कलश सौंपती जाती है। वहाँ दोनों ओर इन्द्र के खड़े होने के लिए बने दो छोटे सिंहासनों पर सौधर्म व ईशान इंद्र खडे होकर हाथों में कलश लेकर एक हजार आठ कलशों द्वारा ( बाल तीर्थंकर का) अभिषेक करते हैं।
उन कलशों का मुख एक योजन का , बीच का उदरस्थान चार योजन चौड़ा, आठ योजन ऊँचा होता है। उन कलशों से निकली धारा भगवान (बाल तीर्थंकर ) के वजवृषभनाराच संहनन वाले शरीर पर फूलों की वर्षा के समान बाधा रहित हे बाद इंद्राणी कोमल वस्त्र से पोंछकर अपने जन्म को कृतार्थ मानती हुई स्वर्ग से लाये हुए सभी रत्नमयी वस्त्र आभरण पहनाती है। वहाँ अनेक देव अनेक उत्सव रचते हैं जिन्हें लिखने में कोई समर्थ नहीं है।
मेरु पर्वत से फिर उसी प्रकार उत्सव करते हुए वापिस आकर जिनेन्द्र को लाकर माता को सौंपकर इंद्र वहाँ तांडव नृत्य आदि जो उत्सव करता है, उन सब उत्सवों का कोई असंख्यात काल तक करोड़ो जिह्वाओं द्वारा वर्णन करने में समर्थ नहीं है।
जिनेन्द्र तो जन्म से ही तीर्थंकर प्रकृत्ति के उदय के प्रभाव से दश अतिशय लिये उत्पन्न होते हैं। पसीना रहित शरीर, नीहार, (मल, मूत्र, कफ आदि) रहितपना, शरीर में दुग्धवर्ण श्वेत रुधिर,
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