Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

View full book text
Previous | Next

Page 461
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४१८] उस स्फटिक मणिमय कोट से गन्ध कुटी की निचली प्रथम पीठ तक लम्बी सोलह दीवारें आकाश स्फटिक मणि की बनी हुई हैं जिनकी कान्ति बहुत निर्मल है। प्रथम पीठतल से लगाकर स्फटिक कोट तक बनी सोलह दीवारें हैं जो अपनी स्वच्छता के कारण नेत्रों से दिखाई नहीं देती हैं, केवल आकाश ही दिखाई देता है; हाथ आदि शरीर के स्पर्श से ही दीवार ज्ञात होती है, अपनी स्वच्छता के प्रभाव से दिखाई नहीं देती है। निर्मल और समस्त वस्तुओं के बिम्ब दिखानेवाली वहाँ की भूमि जिनेन्द्र की ज्ञानविद्या के समान शोभायमान हो रही है। इन सोलह दीवालों के बीच में सोलह ही दर हैं, जिनमें चार महावीथी हैं तथा महावीथियों के बीच बारह सभास्थान हैं, जो दीवारों की आकाश समान स्वच्छता के कारण अलग-अलग नहीं दिखाई देते हैं, सभी एक ही दिखते हैं। उन सोलह दीवारों के ऊपर रत्नमय सोलह खंभों द्वारा धारण किया आकाश स्फटिक मणिमय बहुत ऊँचा श्री मंडप है, जो एक योजन चौड़ा लंबा गोल है, महान शोभायुक्त है। उसमें समस्त सुर असुरों से वंद्यमान भगवान स्याद्वाद विद्या के परमेश्वर विराजमान हैं। इसीलिये यह सच्चा ही श्री मण्डप है। यह श्री मण्डप आकाश स्फटिक मणिमय है, जिसमें से आकाश दिखाई देता है। तीन लोक के जन समूह को निर्बाध स्थान देने से बड़े वैभव को प्राप्त है। उस श्री मण्डप के ऊपर गुह्यक देवों द्वारा छोड़े गये पुष्पों के समूह हैं जो श्री मण्डप के नीचे बैठे देव मनुष्यों को तारागणों की शंका उत्पन्न कराते हैं। एक योजन विस्तार वाले इस श्री मण्डप में सभी देव मनुष्य परस्पर बाधा रहित सुखरुप बैठते हैं, वह जिनेन्द्र का माहात्म्य है। उसके मध्य भाग में प्रथम पीठ स्थित है, वह वैडूर्यमणि का मयूर के कण्ठ के समान हरित वर्ण का आठ धनुष ऊँचा है। उस पीठ के सोलह अंतर हैं। उन सोलह अंतर के सोलह-सोलह पग चढ़ने-उतरने के लिये सीढ़ियाँ हैं। प्रथम पीठ के चार तरफ तो चार महावीथी हैं जो एक कोस चौड़ी तथा धूलिशाल कोट से प्रथम पीठ तक लम्बी सीधी हैं। उस पीठ को सोलह-सोलह सीढ़ियाँ चढ़कर प्रथम पीठ के ऊपर जाकर अपनी – अपनी सभा के स्थान पर देव मनुष्य आदि जाकर अपनी-अपनी सभा में बैठ जाते हैं। उस प्रथम पीठ को चारों तरफ से अष्ट मंगलद्रव्य सजाये हैं तथा चारों तरफ ही उसके ऊपर ऊँचे यक्षों के मस्तक पर धर्म चक्र स्थित हैं। वे धर्म चक्र एक हजार रत्नमय किरणों के समह से शोभित ऐसे दिख रहे हैं मानो प्रथम पीठ का रुप उदयाचल पर्वत के ऊपर सर्य का विम्ब ही उदय होता दिखाई दे रहा है। उस प्रथम पीठ के ऊपर स्वर्णमय द्वितीय पीठ है। द्वितीय पीठ स्वर्णमय है जो प्रथम पीठ के ऊपर चार धनुष ऊँची है। वह पीठ सूर्य की किरणों के समान अपनी कांति से आकाश को उद्योतरुप कर रही है। उस दूसरी पीठ के ऊपर आठ प्रकार की ध्वजा हैं। वे ध्वजा - १ चक्र, २ हाथी,३ वृषभ, ४ कमल, ५ वस्त्र.६ सिंह, ७ गरुड़, ८, माला ध्वजा हैं। क्या ये हवा से हिलते हुए वस्त्रों से जैसे पाप रुप धूल को ही उड़ा रही Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527