Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनि कुम्भकारकट नगर में पानी में पेल दिये गये तो भी वे मुनि साम्यभावों से नहीं चिगे, तुम्हारे लिये कितनी सी वेदना है ?
चाणक्य नाम के मुनि को गायों के रहने के घर में सुबन्ध नाम के वैरी ने अग्नि लगाकर जला दिया, परन्तु वे मुनि प्रायोपगमन सन्यास से नहीं चिगे, तुम्हारे लिये कितनी सी वेदना है ?
वृषभसेन नाम के मुनि को संघ सहित कुलाल ग्राम के बातह रिष्टाभ नाम के वैरी ने अग्नि लगाकर जला दिये, वे सभी परम वीतरागता पूर्वक आराधना को प्राप्त हुए, तुम्हारे लिये कितनी सी वेदना है ?
हे आराधना के आराधक! हृदय में विचार करो-इतने मुनियों ने असहाय, एकाकी, इलाज, प्रतिकार रहित, वैयावृत्य रहित होते हुए भी, परम धैर्य धारण करके, कायरता रहित, समभावों से , घोर उपसर्ग सहित आराधना साधी। यहाँ तुम्हारे ऊपर क्या उपसर्ग हैं ? समस्त साधर्मी जन वैयावृत्य में तत्पर हैं, तो भी तुम क्यों दुःखी हो रहे हो ? ये सब बड़ेबड़े पुरुष हुए हैं उनका कोई सहायी नहीं था, कोई वैयावृत्य करनेवाला नहीं था, सभी असहाय थे। उनके ऊपर दुष्ट वैरियों ने घोर उपसर्ग किये, अग्नि में जला दिये, पर्वत से पटककर शस्त्रों से विदारे गये, तिर्यंचों द्वारा विदारें गये, खाये गये, जल में डुबोये गये, कुवचनों के घोर उपद्रव हुए तो भी साम्यभाव नहीं छोड़ा। तुम्हारे ऊपर तो कोई उपसर्ग नहीं आया है, धर्म के धारक , करुणावान, धैर्य के धारक, परम हितोपदेश में उद्यमी, वैयावृत्य में उद्यमी समस्त परिकर उपस्थित है। अब आकुलता का कोई कारण नहीं हैं, तथा शीत-उष्ण-पवन-वर्षा का उपद्रव भी नहीं हैं, ऐसे अवसर में भी क्यों शिथिल हो रहो हो ?
तुम्हारे लिये जो रोग-जनित, अशक्तता – जनित, क्षुधा-तृषादि की वेदना हुई है उसमें परिणाम नहीं लगाओ। साधर्मीजनों के मुख से उच्चारण किये गये जिनेन्द्र के वचनरुप अमृत का पान करो। इससे समस्त वेदनारुप विष का अभाव होता है, परिणाम उज्ज्वल हो जाते हैं, परम धर्म में उत्साह होता है, पाप की निर्जरा होती है, कायरता का अभाव हो जाता है।
चार गतियों के दु:खों का वर्णन : अब वेदना आने पर चारों गतियों में जो दुःख भोगे हैं, उनका विचार करो। इस संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव ने कौन-कौन सी वेदना नहीं भोगी ? अनेक बार क्षुधा वेदना से-तृषा वेदना से मेरा है, अनेकबार अग्नि में जलकर मरा है, अनेकबार जल में डूबकर मरा है, विष भक्षणकर मरा है, अनेकबार सिंह श्वानादि द्वारा मारा गया है, पहाड़ की चोटी से गिरकर मारा है, शस्त्रों के घात से मारा है, अभी इस जीव को ( तुम्हें) कितना सा दुःख है ?
जो दुःख नरक व तिर्यंचगति में दीर्घ काल तक भोगा है उसको तो केवलज्ञानी भगवान ही जानते हैं। यहाँ यह वेदना कुछ थोड़े से समय के लिये आई है, अतः धैर्य नहीं छोड़ो। जो घोर वेदना कर्मो के वश होकर चारों गतियों में भोग चुके हो, उसको करोड़ों जिह्याओं द्वार असंख्यात वर्षों तक कहने में भी कोई समर्थ नहीं है।
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