Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 471
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ४२८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार सम्यग्दृष्टि, श्रावक तथा मुनियों का विरोधी रहता है उसका शास्त्रज्ञान भी विष के तुल्य है, संसार के दुःखों की प्राप्ति का ही कारण है। ___ - स्वामी कार्तिकेय अनुप्रेक्षा व्यवहार यथा पदवी जानने में आता ( ज्ञाता होता) हुआ उस काल प्रयोजनवान है हे भव्य जीवो! यदि तुम जिनमत का प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो; क्योंकि व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ-व्यवहार मार्ग का नाश हो जायेगा और निश्चयनय के बिना तत्त्व ( वस्तु) का नाश हो जायेगा। यह जीव नामक पदार्थ है, जो कि पुद्गल के संयोग से अशुद्ध- अनेक रुप हो रहा है। उसका समस्त परद्रव्यों से भिन्न, एक ज्ञायकत्वमात्र का ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरणरूप प्राप्ति यह तीनों जिसे हो गये हैं उसे पुदगल संयोगजनित अनेक रूपता को कहनेवाला अशुद्धनय कुछ भी प्रयोजनवान (किसी मतलब का) नहीं है, किन्तु जहाँ तक शुद्धभाव की प्राप्ति नहीं हुई, वहाँ तक जितना अशुद्धनय का कथन है उतना यथा पदवी प्रयोजनवान है। जहाँ तक यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान की प्राप्ति रुप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई हो, वहाँ तक जो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता है ऐसे जिन वचनों को सुनना, धारण करना, तथा जिन वचनों को कहनेवाले श्रीजिन गुरु की भक्ति, जिनबिम्ब के दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्ग में प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है; और जिन्हें श्रद्धान-ज्ञान तो हुआ हैं, किन्तु साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई हैं; उन्हें पूर्व कथित कार्य, परद्रव्य का अवलम्बन छोड़नेरुप अणुव्रत महाव्रत का ग्रहण, समिति, गुप्ति, और पंचपरमेष्ठी का ध्यानरुप प्रवर्तन तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करनेवालों की संगति एवं विशेष जानने के लिये शास्त्रों का अभ्यास करना इत्यादि व्यवहारमार्ग में स्वयं प्रवर्तन करना और दूसरों को प्रवर्तन कराना ऐसे व्यवहारनय का उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनवान है। व्यवहारनय को कथंचित् असत्यार्थ कहा गया है; किन्तु यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोगरुप व्यवहार को ही छोड़ देगा और उसे शुद्धोपयोग की साक्षात् प्राप्ति तो नहीं हुई है, इसलिये उल्टा अशुभोपयोग में ही आकर भ्रष्ट होकर, चाहे जैसी स्वेच्छारुप प्रवृत्ति करेगा तो वह नरकादि गति तथा परम्परा से निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करेगा। इसलिये शुद्धनय का विषय जो साक्षात् आत्मा है उसकी प्राप्ति जब तक न हो तब तक व्यवहार भी प्रयोजनवान है-ऐसा स्याद्वाद में श्रीगुरुओं का उपदेश है। - समयसार गाथा १२ टीका तथा भावार्थ परम उपेक्षारुप वैराग्य और स्वयं स्वानुभवरुप ज्ञान ये दो ही ज्ञानी के लक्षण हैं। जिसके ये लक्षण पाये जाते हैं, वही जीव मुक्त है। - पंचाध्यायी आत्मा अव्यक्त है १. षड्द्रव्यात्मक लोक ज्ञेय है, अत: व्यक्त है और जीव उससे भिन्न है, अतः अव्यक्त है। २. कषायचकुरुप भावकभाव व्यक्त है और जीव उससे भिन्न है, अतः अव्यक्त है। ३. चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियाँ निमग्न होने से जीव अव्यक्त है। ४. क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं होने से जीव अव्यक्त है। ५. व्यक्तता और अव्यक्तता एकमेव मिश्रितरुप से प्रतिभासित होने पर भी वह केवल व्यक्तता को स्पर्श नहीं करता, अत: जीव अव्यक्त है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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