Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 495
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ४५२] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार यदि कोई आराधक ज्ञान सहित होकर भी कर्म के तीव्र उदय से तीव्र रोग, क्षुधा तृषादि परीषह सहन करने में असमर्थ होकर व्रतों की प्रतिज्ञा तोड़ने लगे, अयोग्य वचन भी कहने लगे, रुदनादि रुप विलापरुप आर्त परिणाम हो जायें तो साधर्मी बुद्धिमान पुरुष उसका तिरस्कार नहीं करे, कटुवचन नहीं कहे, कठोर वचन नहीं कहे; क्योंकि वह वेदना से तो दुःखी है ही, बाद में तिरस्कार के व अवज्ञा के वचन सुनकर मानसिक दुःख पाकर दुर्ध्यान करके धर्म से विचलित हो जाये, विपरीत आचरण करने लगे, आत्माघात कर ले ? इसलिये आराधक का तिरस्कार करना योग्य नहीं है। उपदेशदाता को बहुत धीरता धारण करके आराधक को स्नेह भरे वचन कहना, मीठे वचन कहना, जो हृदय में प्रवेश कर जायें, जिन्हें सुनते ही समस्त दुःख भूल जाये। करुणारस से भरे उपकारबुद्धि से भरे वचन कहना चाहिये। समाधि धारक को संबोधन हे धर्म के इच्छुक! अब सावधान हो जाओ। पूर्व कर्म के उदय से रोग , वेदना, महाव्याधि उत्पन्न हुई है, परीषहों का कष्ट पैदा हुआ है, शरीर निर्बल हो गया है। आयु पूर्ण होने का अवसर आया है। अतः अब दीन नहीं होओ, कायरता छोड़कर शूरपना ग्रहण करो। कायर व दीन होने पर भी असाताकर्म का उदय नहीं छोड़ेगा। दुःख को हरण करने में कोई भी समर्थ नहीं है। असाता को दूर करके साताकर्म देने में कोई इन्द्र, धरणेन्द्र, जिनेन्द्र समर्थ नहीं है। कायरता दोनों लोकों को नष्ट करनेवाली है, धर्म से पराङ्मुखता करानेवाली है। अतः धैर्य धारण करके क्लेशरहित होकर भोगोगे तो पूर्वकर्म की निर्जरा होगी तथा नवीन कर्म के बंध का अभाव हो जायेगा। तुम जिनधर्म के धारक धर्मात्मा कहलाते हो, सभी लोग तुम्हें ज्ञानवान समझते हैं। धर्म के धारकों में विख्यात हो, व्रती हो, व्रत-संयम की यथाशक्ति प्रतिज्ञा ग्रहण की है, यदि तुम अब त्याग-संयम में शिथिलता दिखलाओगे तो तुम्हारा यश तथा परलोक तो बिगड़ेगा ही; किन्तु अन्य धर्मात्माओं की व धर्म की भी बहुत निन्दा होगी, अनेक भोले जीव धर्म के मार्ग में शिथिल हो जायेंगे। जैसे कोई कुलवान मानी सुभट लोगों के बीच बहादुरी से भुजाओं को दिखलाकर फड़काता था, बाद में शत्रु को सामने आता देखते ही भयभीत होकर भाग जाय तो अन्य छोटे किंकर कैसे थिरता धारण करेंगे? तथा दो-दिन और जी गया तो भी उसका जीवन ही धिक्कारने योग्य होता है। उसी प्रकार तुम भी त्याग, व्रत, संयम की प्रतिज्ञा लेकर यदि अब शिथिल होवोगे तो निंदा के पात्र हो जाओगे; अशुभ कर्म भी नहीं छोड़ेगा व आगे के लिये बहुत दु:ख देने के कारणरुप नवीन कर्मो का ऐसा तीव्र-दृढ़ बन्ध करोगे जो असंख्यात वर्षों तक तीव्र फल (रस) देता रहेगा। ___तुम्हें पहले ऐसा अभिमान था – कि मैं तो जिनेन्द्र का भक्त जैनी हूँ, आज्ञा प्रतिपालक हूँ, जिनेन्द्र के कहे व्रत, शील, संयम धारण करनेवाला हूँ, जो श्रद्धान ज्ञान आचरण अनन्त भवों में दुर्लभ है वह वीतराग गुरुओं की कृपा से प्राप्त हुआ है-ऐसा निश्चय करके भी अब कर्म के उदय से कुछ रोगजनित वेदना व परिषह के आने से कायर होकर विचलित होना अति लज्जा का कारण Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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