Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 478
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम- सम्यग्दर्शन अधिकार] [४३५ हो, तथा ज्ञानादि की उज्ज्वलता प्रकट हो, वीतराग निज स्वभाव की प्राप्ति हो जाये वैसा प्रयत्न करना चाहिये। यह पर्याय (शरीर) तो अनंतानंतबार धारण करके छोड़ी है। मैंने दर्शन-ज्ञान-चारित्र की विपरीतता से विषयों के आधीन होकर विपरीत श्रद्धान, विपरीत ज्ञान, विपरीत आचरण करके चारों गतियों में परिभमण किया है। कहाँ तो मेरा समस्त का ज्ञाता सर्वज्ञ स्वरुप, और कहाँ एकेन्द्रिय पर्याय में अक्षर के अनंतवें भाग ज्ञान का रहना ? अनन्त शक्ति अन्तराय कर्म के उदय से नष्ट होकर पृथ्वी-पाषाण, जल, अग्नि, पवन, वनस्पति रुप पाँच स्थावरों में जन्म लेना, विकलत्रय होना - यह सब मिथ्या श्रद्धान, मिथ्या ज्ञान, मिथ्या आचरण का प्रभाव है। अब अनन्तानन्त काल में कर्म के बहुत क्षयोपशम से वीतरागी के स्याद्वादरुप उपदेश से मुझे कुछ स्व-रुप पर-रुप का ज्ञान हुआ है। अतः हे सज्जन ! अब ऐसा यत्न करो जिससे मेरा आत्मा राग, द्वेष, मोह रहित होकर निर्भय होकर आराधनाओं की शरण सहित इस देह का त्याग करे । अनादिकाल से मिथ्यात्व सहित अनन्तानन्तबार बाल मरण किये । यदि एक बार भी पण्डितमरण करता तो फिर मरण का पात्र नहीं होता। इसलिये अब देह से स्नेहादि छोड़कर जैसे मेरा आत्मा रागादि के वश होकर संसार समुद्र में नहीं डूबे वैसा यत्न करना उचित है। इस प्रकार स्नेह-बैर आदि छोड़कर तथा देह, परिग्रह आदि का राग छोडकर मन को शद्ध करना चाहिये। समाधिमरण के इच्छुक को क्या करना चाहिये ? यह श्लोक कहते हैं : आलोच्यसर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ।।१२५।। अर्थ :- यदि आपने कोई पाप अपराध किया हो, अन्य से कराया हो, करनेवालों को अच्छा जाना हो, तो उस अपराध को एकान्त में कपट रहित होकर निर्दोष वीतरागी ज्ञानी गुरु से आलोचना करे, तथा मरणपर्यन्त पूर्ण महाव्रतों का आरोपण करे, ग्रहण करे। भावार्थ :- वीतरागी निर्दोष गुरुओं का संयोग प्राप्त हो जाये , अपने रागादि कषायें घट जायें, परीषह आदि सहने में अपने शरीर व मन समर्थ हो, धैर्यादि गुणों का धारक हो, निर्ग्रन्थ वीतरागी गुरु निर्वाह करने को समर्थ (तैयार) हों देश काल सहायक का शुद्व संयोग प्राप्त हो जाये तो महाव्रत अंगीकार करे । यदि उक्त बाह्य-अंतरंग सामग्री प्राप्त नहीं हो तो अपने परिणामों में ही भगवान पंच परमेष्ठी का ध्यान करके अरहंत आदि से ही आलोचना करे। अपनी योग्यता समस्त पाँच पापों का त्याग करके , गृह में रहता हुआ ही, महाव्रती के समान होकर, रोगादि की वेदना को कायरता रहित बड़े धैर्य पूर्वक सहता हुआ, दुःखरुप वेदना को बाहर प्रकट किये बिना ही सहे। कर्म के उदय को अपने स्वभाव से भिन्न जानकर समस्त शत्रु-मित्र संयोग-वियोग में साम्यभाव धारण करते हुए परिग्रह आदि की उपाधि को त्याग कर विकल्प रहित हो जाये। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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