Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 487
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ४४४] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार काश, श्वास, शूल, वात, पित्त, अतिसार, मंदाग्नि इत्यादि रोग उत्पन्न होते हैं, वे इस देह से ममत्व घटाने के लिये मुझे बड़ा उपकार करते हैं, धर्म में सावधानी कराते हैं। यदि रोगादि नहीं उत्पन्न होते तो देह से मेरी ममता भी नहीं घटती तथा अभिमान भी नहीं घटता। मैं तो मोह की अंधेरी से अंधा होकर देह को अजर-अमर मान रहा था। अब इन रोगों की उत्पत्ति ने मुझे सचेत कराया है। अब इस देह को अनित्य-अशरण जानकर, ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप को ही एक निश्चय शरण मानकर, आराधनाओं के धारक भगवान पंच परमेष्ठी को चित्त में धारण करता हूँ। अब इस समय में हमारे लिये एक जिनेन्द्र का वचनरूप अमृत ही परम औषधि है। जिनेन्द्र के वचनामृत बिना विषय-कषायरुप रोग जनित दाह को मिटाने में कोई समर्थ नहीं है। बाह्य औषधि आदि तो असाता कर्म का मंद उदय होने पर कुछ देर के लिये, किसी एक रोग को शान्त कर देती है; किन्तु यह देह तो अनेक रोगों से भरी हुई है, यदि एक रोग मिट गया, तो अन्य रोग से होनेवाली वेदना भोगकर फिर भी मरण तो करना ही पडेगा । इसलिये जन्मजरा-मरणरुप रोग को दूर करने वाले भगवान के उपदेशरुप अमृत का ही पान करता हूँ। औषधि आदि हजार उपाय करने पर भी विनाशीक देह के रोग नहीं मिटेंगे । इसलिये रोग से दुःखी होकर कुगति का कारण दुर्ध्यान उचित नहीं है। रोग आने पर भी उसे बड़ा भला ही मानो कि इस रोग के प्रभाव से ही ऐसे जीर्ण गले हुए शरीर से मैं छूट जाऊँगा । यदि रोग नहीं आता तो मेरे पूर्वकृत कर्म निर्जरित नहीं होते, तथा देहरुप महा दुर्गन्धित दुःखदायी बन्दीगृह से मेरा शीघ्र छूटना भी नहीं होता। इस रोगरुप मित्र की सहायता जैसे-जैसे देह में बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही मुझे रागबंधन से, कर्मबंधन से, शरीर बंधन से छूटने में शीघ्रता हो रही है। यह रोग तो देह में हैं, देह को ही नष्ट करेगा। मैं आत्मा तो अमूर्तिक चैतन्य स्वभावी अविनाशी हूँ, ज्ञाता हूँ। यह रोग जनित दु:ख मेरे जानने में आता है, मैं तो मात्र जाननेवाला ही हूँ, इसके साथ मेरा नाश नहीं होगा। जैसे लोहे की संगति में अग्नि भी घनों का घात सहती है वैसे ही शरीर की संगति से वेदना का जानना मुझे भी होता है। जैसे अग्नि से झोपड़ी जलती है, झोपड़ी के भीतर का आकाश नहीं जलता है; वैसे ही अविनाशी, अमूर्तिक , चैतन्यधातुमय आत्मा का रोगरुप अग्नि से नाश नहीं होता है। अपने द्वारा बांधा गया कर्म उदय में आने पर अपने को भोगना ही पड़ेगा। कायर होकर भोगूंगा तो कर्म नहीं छोड़ेगा, तथा धैर्य धारण कर भोगूंगा तो भी कर्म नहीं छोड़ेगा। इसलिये दोनों लोकों को बिगाड़नेवाले कायरपने को धिक्कार हो। कर्म का नाश करनेवाला धैर्य धारण करना ही श्रेष्ठ है। हे आत्मन्! तुम रोग के आने पर इतने कायर होते हो सो विचार करो :- नरकों में इस जीव ने कौन-कौन सा कष्ट नहीं भोगा? वहाँ पर असंख्यातबार अनन्तबार मारे, विदारे, चीरे, फाड़े Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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