Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 492
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates सप्तम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [४४९ हे आत्मन् ! संसार परिभ्रमण करते हुए तूने इतना आहार किया है कि यदि एक-एक जन्म का एक-एक कण एकत्र करें तो अनन्त सुमेरू के बराबर हो जायें; तथा अनन्त जन्मों में इतना जल पिया है कि यदि एक-एक जन्म की एक-एक बूंद इकट्ठा करें तो अनन्त समुद्र भर जायें। इतने आहार और जल से भी तू तृप्त नहीं हुआ है तो अब रोग-जरादि से प्रत्यक्ष मरण निकट आ गया है, अब इस समय में किंचित् आहार-जल से कैसे तृप्ति होगी? इस पर्याय में भी जब से जन्म लिया है तब से प्रतिदिन ही आहार ग्रहण करता आया हैं। आहार का लोभी होकर के ही घोर आरंभ किये हैं, आहार के लोभ से ही हिंसा, असत्य, परधनलालसा, अब्रह्म व परिग्रह का बहुत संग्रह तथा दुर्ध्यान आदि द्वारा अनेक कुकर्म उपार्जन किये हैं। आहार की शुद्धता से ही दीनवृत्ति से पराधीन हुआ। आहार का लोभी होकर भक्ष्यअभक्ष्य का विचार नहीं किया, रात्रि-दिन का विचार नहीं किया, योग्य-अयोग्य का विचार नहीं किया । आहार का लोभी होकर क्रोध, अभिमान, मायाचार, लोभ, याचना भी की। आहार की इच्छा करके अपना बड़ापना-स्वाभिमान नष्ट किया। आहार का लोभी होकर के अनेक रोगों का घोर दुःख सहा, नीचजाति-नीचकुल वालों की सेवा की । आहार का लोभी होकर स्त्री के आधीन रहा, पुत्र के आधीन रहा। आहार का लंपटी निर्लज्ज होता है, आचार-विचार रहित होता है, आपस में कट-कट कर मर जाता है, दुर्वचन सहता है। आहार के लिये ही तिर्यंचगति में परस्पर मार डालते हैं, भक्षण कर लेते हैं। बहुत कहने से क्या ? अब इस पर्याय में मुझे अल्प समय ही रहना है, आयु समाप्त होने को है, इसलिये रसों में गृद्धता छोड़कर,रसना इंद्रिय की लालसा छोड़कर यदि आहार का त्याग करने में उद्यमी नहीं होऊँगा तो व्रत , संयम, धर्म, यश, परलोक - इनको बिगाड़कर कुमरण करके संसार में ही परिभ्रमण करूँगा। ऐसा निश्चय करके ही अतृप्ति करनेवाला आहार का त्याग करने के लिये किसी समय उपवास, कभी बेला, कभी तेला, कभी एक बार आहार करना, कभी नीरस आहार, कभी अल्प आहार इत्यादि क्रम से अपनी शक्ति अनुसार तथा आयु की शेष रही स्थिति प्रमाण आहार को घटाकर दुग्ध आदि ही पिये। फिर क्रम से दुग्ध आदि स्निग्ध पदार्थों का भी त्याग करके छांछ व गर्म जल आदि ही ग्रहण करे। फिर क्रम से जलादि समस्त आहार का त्याग करके अपनी शक्ति प्रमाण उपवास करते हुए पंच परमेष्ठी में मन को लीन करते हुए धर्मध्यान रुप होकर बड़े यत्न से देह को त्यागना उसे सल्लेखना जानना चाहिए। इस प्रकार काय सल्लेखना का वर्णन किया। समाधिमरण में आत्मघात का अभाव है: अब यहाँ कोई प्रश्न करता है : यहा आहारादि त्याग करके मरण करना तो आत्मघात है, तथा आत्मघात करना अनुचित बताया है ? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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