Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 481
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ४३८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार अर्थ :- हे आत्मन् ! कृमि समूह के सैंकड़ों जालों से भरे, नित्य जर्जर होते जा रहे इस देहरुप पिंजरे के नष्ट होने का तुम भय नहीं करो, क्योंकि तुम तो ज्ञान शरीरी हो। भावार्थ :- तुम्हारा रुप तो ज्ञान है जिसमें ये सकल पदार्थ प्रकाशित हो रहे है; तथा अमूर्तिक, ज्ञान ज्योति स्वरुप, अखण्ड अविनाशी, ज्ञाता, दृष्टा है। जो यह हांड, मांस, चमड़ामय, महादुर्गन्धित विनाशीक देह है, वह तुम्हारे रुप से अत्यन्त भिन्न है; कर्म के वश से एक क्षेत्र में अवगाहन करके एक से होकर ( मिलकर) रह रहे हो, तो भी तुममें - इसमें अत्यन्त भेद है। यह देह तो पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन के परमाणुओं का पिण्ड है जो समय आने पर बिखर जायेगा, किन्तु तुम अविनाशी अखण्ड ज्ञायकरुप हो। इस देह के नाश होने से भय क्यों करते हो? अब और भी कहते हैं। देहान्तर में गमन करने से भय नहीं करो : ज्ञानिन् भयं भवेत् कस्मात् प्राप्ते मृत्युमहोत्सवे । स्वरुपस्थः पुरं याति देही देहान्तर स्थितिः ।।३।। अर्थ :- हे ज्ञानी ! तुमको वीतरागी सम्यग्ज्ञानी उपदेश करते हैं- मृत्यरुप महान उत्सव प्राप्त होने पर क्यों भय करते हो ? इस देह में रहने वाला आत्मा अपने स्वरुप में रहता हुआ अन्य देह रुप नगर को चला जाता है, इसमें भय करने का क्या कारण हैं ? भावार्थ :- जैसे कोई मनुष्य एक जीर्ण कुटिया में से निकलकर अन्य नये महल में जाकर रहने लगता है, तो वह बड़े उत्सव का अवसर है। उसी प्रकार यदि यह आत्मा अपने स्वरुप में रहता हुआ ही इस जीर्ण देहरुप कुटिया को छोड़कर नये देहरुप महल को प्राप्त कर ले तो यह महान उत्सव का अवसर है, इसमें कुछ हानि नहीं है जो भय किया जाये । यदि अपने ज्ञायक स्वभाव में रहते हुए, पर को अपना मानना छोड़कर, परलोक जाओगे तो बहुत आदर सहित दिव्य, धातु-उपधातु रहित, वैक्रियिक देह में देव होकर अनेक महर्द्धिक देवों में पज्य महान देव होवोगे; और यदि यहाँ भय करके अपने ज्ञायक स्वभाव को बिगाड़कर पर में ममता धारण करते हुए मरोगे तो एकेन्द्रियादि की देह में अपने ज्ञान का नाश करके जड़ जैसे हो जाओगे। इसलिये मलिन क्लेशवान देह को छोड़कर क्लेश रहित उज्ज्वल देह में जाना तो बड़े उत्सव का कारण है। समाधि मरण उपकारक है : सुदत्तं प्राप्यते यस्मात् दृश्यते पूर्वसत्तमैः । भुज्यते स्वर्भुवं सौख्यं , मृत्युभीतिः कुतः सताम् ।।४।। अर्थ :- पूर्वकाल में हुए गणधर आदि सत्पुरुष ऐसा बतलाते हैं कि जिस मृत्यु के द्वारा अच्छी तरह से दिया गया फल प्राप्त होता है, स्वर्गलोक का सुख भोगा जाता है, सत्पुरुषों को उस मृत्यु से कैसे भय होगा ? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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