Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 470
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [४२७ परिशिष्ट-६ शुद्धनय का उपदेश इस जीव को जब तक पर्यायबद्धि रहता है तब तक संसार रहता है। यबुद्धि रहता है तब तक संसार रहता है। जब इसे शुद्धनय का उपदेश पाकर द्रव्यबुद्धि होती है, तथा अपने आत्मा को अनादि-अनन्त, एक, सर्व परद्रव्यों व परभावों के निमित्त से उत्पन्न हुए अपने भावों से भिन्न जानता है और अपने शुद्ध-स्वरुप का अनुभव करके शुद्धोपयोग में लीन होता है, तब यह जीव कर्मों का अभाव करके निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त करता है। - समयसार प्रस्तावना : पंडित जयचंदजी छाबड़ा शुद्धनय के विषयरुप आत्मा (पर्याय रहित त्रिकाली ध्रुव) का अनुभव करो। जगत के प्राणियों ! इस सम्यक् स्वभाव का अनुभव करो कि जहाँ बद्धस्पृष्टादि भाव स्पष्टतया उस स्वभाव के ऊपर तैरते हैं तथापि वे उस स्वभाव में प्रतिष्ठा नहीं पाते, क्योंकि द्रव्य स्वभाव तो नित्य है एक रूप है और यह भाव अनित्य है अनेक रुप हैं; पर्यायें द्रव्य स्वभाव में प्रवेश नहीं करती, ऊपर ही रहती हैं। यह शुद्ध स्वभाव सर्व अवस्थाओं में प्रकाशमान है। ऐसे शुद्ध स्वभाव का, मोह रहित होकर जगत अनुभव करे, क्योंकि मोहकर्म के उदय से उत्पन्न मिथ्यात्वरुपी अज्ञान जहाँ तक रहती है, वहाँ तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता। शुद्धनय की दृष्टि से देखा जाये तो सर्व कर्मों से रहित चैतन्य मात्र देव अविनाशी आत्मा अंतरंग में स्वयं विराजमान है। यह प्राणी पर्यायबुद्धि बहिरात्मा उसे बाहर ढूँढता है, यह महा अज्ञान है। __- समयसार कलश ११ तथा १२ : आचार्य अमृतचंद्रदेव साध्य आत्मा की सिद्धि दर्शन ज्ञान चारित्र से ही है, अन्य प्रकार से नहीं। क्योंकि पहले तो आत्मा को जाने कि यह जो जानने वाला अनुभव में आता है सो मैं हूँ । इसके बाद उसकी प्रतीतिरुप श्रद्धान होता है; क्योंकि जाने बिना किसका श्रद्धान करेगा? तत्पश्चात् समस्त अन्य भावों से भेद करके अपने में स्थिर हो। - समयसार गाथा १७-१८ भावार्थ अज्ञानदशा में आत्मा स्वरुप को भूलकर रागद्वेष में प्रवृत्त होता था, परद्रव्य की क्रिया का कर्ता बनता था, क्रिया के फल का भोक्ता होता था इत्यादिक भाव करता था; किन्तु अब ज्ञान दशा में वे भाव कुछ भी नहीं है, ऐसा अनुभव किया जाता है। - समयसार कलश २७७: आचार्य अमृतचंद्रदेव जिनके चित्त का चरित्र उदात्त है ऐसे मोक्षार्थी इस सिद्धान्त का सेवन करें कि मैं तो सदाशुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही हूँ; और जो यह भिन्न लक्षणवाले विधि प्रकार के भाव प्रगट होते हैं वे मैं नहीं हूं, क्योंकि वे सभी मेरे लिये परद्रव्य है। -समयसार कलश १८५: आचार्य अमृतचंद्रदेव सकल कर्मों के फल का त्याग करके ज्ञानचेतना की भावना करने वाला ज्ञानी भावना भाता है कि मैं चैतन्य लक्षण आत्मतत्त्व को अतिशयपना भोगता हूँ। ऐसी भावना करने वाला ज्ञानी ऐसा तृप्त हुआ है कि मानो भावना करता हुआ साक्षात् केवली हो गया हो। इसी भावना से केवली हुआ जाता है। केवल ज्ञान उत्पन्न करने का परमार्थ उपाय यही है। बाह्य व्यवहार चारित्र इसीका साधनरुप है; ऐसी भावना के बिना व्यवहार चारित्र शुभकर्म को बांधता है, व मोक्ष का उपाय नहीं है। -समयसार कलश २३१ : आचार्य अमृतचंद्रदेव जो विद्या के मद से गर्विष्ट होकर अपने को पण्डित मानता है और प्रशंसा, पूजा, धन, भोजन, औषधि वगैरह के लाभ की भावना से जैन शास्त्रों को पढ़ता है तथा पढ़ाता है और साधर्मीजनों के प्रतिकूल रहता है; Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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