Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

View full book text
Previous | Next

Page 468
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार ] [४२५ को न तो बंद करके न ही अधिक खोलकर दाँतों से दातों को स्पर्श नहीं कराते हुए; थोड़ा-सा मुख को ऊपर रखे । मध्य हृदय, उदरादि सरल रखे। शरीर को अकड़ाना छोड़कर, परिणामों में मस्तक, ओंठों को गंभीरता सरलता धारण करके प्रसन्न मुख रहे। निमेष रहित स्थिर सौम्य दृष्टि सहित होकर, निद्रा, आलस्य, काम, राग, रति, अरति, शोक, हास्य, भय, द्वेष, ग्लानि को नष्ट करके; जिसका मंद-मंद श्वासोच्छ्वास रह जाये; इतनी साम्रगी सहित साधु नाभि के ऊपर या हृदय में या मस्तक में या इसी के बीच अन्य किसी स्थान में मन की प्रवृत्ति को ( रोककर ) जैसे बने वैसे निश्चल करके मोक्ष अर्थात् कर्मबन्धन से छूटने का अभिलाषी होकर प्रशस्त ध्यान करे । उस ध्यान में एकाग्रमन होकर, राग-द्वेष-मोह की उपशमता को प्राप्त होकर, सावधानी पूर्वक शरीर की हलन चलन क्रिया को रोकते हुए, मंद-मंद उश्वास - निश्वासरुप सम्यक् निश्चल अभिप्राय करके, क्षमावान होकर, बाह्य आभ्यन्तर द्रव्य - पर्यायों में व्यापते हुए; श्रुत की सामर्थ्य को अंगीकार करनेवाला साधु अर्थ, व्यंजन, काय, वचन से भिन्नता करता हुआ, उपयोग को परिवर्तित करते हुये मन से जैसे कोई पुरुष परिपूर्ण बल के उत्साह से रहित, निश्चलता रहित होकर, पैनापनारहित मोंथरे शस्त्र से बहुत समय मजबूत चिकनी लकड़ी काट पाता है; उसी प्रकार आठवें, नवमें, दसवें गुणस्थानों के भाववाला साधु भी संज्वलन कषाय के उदय से परिपूर्ण, परिणामों के बल के उत्साह को प्राप्त नहीं होकर, भावों में कषाय के उदय के धक्का से दृढ़ निश्चलता को प्राप्त नहीं होने से, मोहनीय कर्म के समस्त उदय का नाश नहीं होने से, धीरे-धीरे करणरुप परिणामों की सामर्थ्य से मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम व क्षय करता हुआ पृथक्त्व वितर्क विचार ध्यान का धारी होता है । फिर वीर्यान्तराय विशेष की हानि होने से योग से योगान्तर का शब्द से शब्दान्तर, अर्थ से अर्थान्तर का आश्रय करता हुआ ध्यान के प्रभाव से समस्त मोहकर्म की रज का अभाव करके योग में लीन होता है। इस प्रकार पृथक्तवितर्क नाम का ध्यान का स्वरुप कहा । एकत्ववितर्क अविचार शुक्लध्यान (२) : उपरोक्त विधि के अनुसार ही समस्त मोहनीय कर्म को जलाकर नाश करने का इच्छुक अनंतगुणी विशुद्धता सहित योग विशेष का आश्रय करके, तथा ज्ञानावरण की सहायक प्रकृतियों के बन्ध को रोकता हुआ व उन्ही की स्थिति को घटाते-घटाते व क्षय करते हुए श्रुतज्ञान का उपयोग करते हुए, अर्थ - व्यंजन- योग का पलटना दूर होकर, मन को अविचलित करके, कषाय को क्षीण करके, वैडूर्यमणि के समान निरुपलेप होकर ध्यान से फिर बाहर नहीं आता है। इस प्रकार एकत्ववितर्क ध्यान का स्वरुप कहा। सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यान ( ३ ) : इस प्रकार एकत्ववितर्क ध्यानरुप अग्नि द्वारा जिन्होंने घातिया कर्मरुप ईंधन जला डाला है, तथा केवलज्ञान रुप सूर्य-चंद्र मंडल पूर्ण प्रकाशित हो गये हैं, मेघ समूह के दूर होने पर निकले सूर्य के समान कांति से दैदीप्यमान भगवान तीर्थकर व अन्य केवली तीनलोक के ईश्वर, इंद्र-धरणेन्द्रादि द्वारा वंदनीय - पूजनीय होकर उत्कृष्टता से देशोन कोटिपूर्व वर्षों तक विहार करते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527