Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

View full book text
Previous | Next

Page 464
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [४२१ जिनेन्द्र की देह की अद्भुत प्रभा समस्त समोशरण में फैल रही है। उस प्रभा से सभी सुर, असुर, मनुष्यों को महा आश्चर्य हो रहा है। वह प्रभा सूर्य के तेज को ढंक रही है, करोडों कल्पवासी देवों की द्यति को आच्छादित करती हई जगत में एक अदभूत महान उदय को प्रकट करती हुई फैल रही है। जिनेन्द्र के देहरुप अमृत के समुद्र में देव, दानव, मनुष्य अपने-अपने सात भव देख रहे है। चन्द्रमा की कान्ति तो जड़ता करती है, सूर्य की प्रभा आतप करती है, किन्तु जिनेन्द्र के देह की प्रभा जड़ता को दूर करती है, ज्ञान का प्रकाश करती है तथा समस्त संताप को दूर करके सुखी करती है। जिनेन्द्र के मुख कमल से मेघ की गर्जना के समान दिव्य ध्वनि प्रकट होती है, जो भव्य जीवों के मन से मोह अंधकार को दूर करती हुई सूर्य के समान अनेकान्त स्वरुप वस्तु का उद्योत करती है। जिनेन्द्र की ध्वनि एकरुप होकर भी समस्त मनुष्यों की भाषारुप होकर कानों के भीतर प्रवेश कर जाती है। तिर्यचों के भी हृदय में प्रवेश कर जाती है, और विपरीत ज्ञान को दूर करके सम्यक्रुप तत्त्वों के ज्ञान को प्रकट करती है। जैसे एकरुप जल का समूह भी अनेक प्रकार के वृक्षों में अनेक रुप परिणम जाता है, उसी प्रकार सर्वज्ञ की एक प्रकार की ध्वनि भी अनेक प्रकार के श्रोतारुप पात्रों की विशेषता से अनेक रुप में प्राप्त हो जाती है। जैसे एक रुप स्फटिक मणि भी अनेक प्रकार के डाक के संयोग से अनेक रुप परिणमती है, उसी प्रकार सर्वज्ञ की एक प्रकार की ध्वनि भी स्वच्छता के प्रभाव से पात्र के प्रभाव से अनेक रुप परिणमती है। कोई दिव्यध्वनि का अनेक भाषा स्वभावरुप परिणमन को देवकृत विशेषता (गुण) कहते हैं किन्तु इसमें देवकृतपना सम्भव नहीं है। दिव्यध्वनि अक्षर सहित ही है, अक्षर समूह कसे बिना अर्थ का ज्ञान कैसे होगा? इस प्रकार अष्ट प्रातिहार्यों की विभूति सहित गन्धकुटी में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तसुख के धारक जिनेन्द्र गन्धकुटी में पूर्व दिशा के सन्मुख या उत्तर दिशा के सन्मुख होकर विराजमान रहते हैं। गन्धकुटी की प्रदक्षिणारुप (चारों ओर) सामने की ओर देखते हुए पहली सभा में गणधरादि मुनिराज बैठते हैं, दूसरी सभा में कल्पवासी देवों की स्त्रियाँ, तीसरी सभा में गणनी सहित अर्जिका व मनुष्यनी स्त्रियाँ, चौथी सभा में चक्रवर्ती आदि सहित मनुष्य, पाँचवी सभा में ज्योतिषी देवों की स्त्रियाँ, छटवीं सभा में व्यन्तर देवों की स्त्रियाँ, सातवीं सभा में भवनवासी देवों की स्त्रियाँ, आठवीं सभा में भवनवासी देव, नवमी सभा में व्यन्तर देव, दशमी सभा में ज्योतिषी देव, ग्यारहवीं सभा में कल्पवासी देव तथा बारहवीं सभा में सभी तिर्यच बैठते हैं। इस प्रकार बारह सभाओं के जीव जिनेन्द्र के चरणों की भक्ति करके नम्रीभूत होकर भगवान जिनेन्द्र के द्वारा उपदेशित धर्मरुप अमृत का पान करते हैं। __घातिया कर्मों का नाश होने से भगवान के अठारह दोषों का अभाव हो गया है। क्षुधा, तृषा, जन्म, मरण, जरा, रोग, शोक, भय, विस्मय, अरति, चिन्ता, स्वेद , खेद, मद, मोह, निद्रा, राग और द्वेष-ये अठारह दोष सभी संसारी (मिथ्यादृष्टि) जीवों में व्याप्त हो रहे है। भगवान अरहन्त के Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527