Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
४१६]
ध्वजा दश प्रकार की हैं : माला, वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, बैल, हाथी, चक्र के चिह्न की ध्वजा दश प्रकार की हैं। वे ध्वजा प्रत्येक एक-एक प्रकार की एक सौ आठ एक दिशा में हैं। सभी दश प्रकार की ध्वजा एक हजार अस्सी एक दिशा में हई, चारों तरफ की चार दिशाओं में चार हजार तीन सौ बीस हैं। समुद्र की लहरों के समान हवा से उनके वस्त्र लहरा रहे हैं।
__माला की ध्वजा में माला आकार के वस्त्र लूमते हिल रहे हैं। ऐसी ही वस्त्र की ध्वजा, मयूराकार मयूर ध्वजा, सहस्त्र पांखुड़ी के कमल के आकार कमल ध्वजा, हंस ध्वजा, गरुड़ ध्वजा, सिंह ध्वजा, वृषभ ध्वजा, गज ध्वजा, चक्र ध्वजा-ये दश प्रकार प्रत्येक दिशा में एक सौ आठ-एक सौ आठ हैं। इस तरह चारों दिशाओं में चार हजार तीन सौ बीस हैं। ऐसा लगता है जैसे ये ध्वजायें मोह कर्म को विजय करके जिनेन्द्र ने जो त्रिभुवेनशपना प्राप्त किया है, उसकी प्रशंसा कर रही हैं।
इस ध्वजा भूमि का घेरा का विस्तार एक योजन चौडा है- दोनों तरफ का दो योजन चौड़ा है। उसके आगे जाने पर दूसरा स्वर्ण का अर्थात् अर्जुन का कोट है। इस दूसरे कोट के भी प्रथम कोट के समान रुपामय चारों तरफ चार महा द्वार हैं। ये द्वार भी प्रथम कोट के द्वारों के समान मंगल द्रव्य, तोरण, रत्नों के आभरणों की सम्पदा को धारण किये हैं। ये द्वार भी तीन-तीन खण्ड के हैं तथा भीतर दोनों ओर नाट्यशालाये, धूपघट युग्म, महावीथी के दोनों बाजुओं में स्थित हैं।
आगे महावीथी के दोनों ओर एक योजन चौड़ा गोल घेराकार विस्तार में अनेक रत्नमय चारों ओर कल्पवृक्षों का वन है। वे सभी कल्पवृक्ष ऊँचे, छायादार, फलों और फूलों से युक्त हैं। दश प्रकार के कल्प वृक्षों के वन का रुप धारण करके जैसे देवकुरु-ऊत्तरकुरु की भोग भूमि ही जिनेन्द्र की सेवा करने आयी है। उन कल्पवृक्षों के आभरण, वस्त्र, फल, पुष्प आदि की महान महिमा है। वृक्षों के नीचे बैठे हुए देव अपने स्वर्गों के स्थान को भलकर चिरकाल तक वहीं पर रहना चाहते है। ज्योतिरांग जाति के कल्पवृक्षों में ज्योतिषी देव, दीपांग जाति के कल्पवृक्षों में कल्पवासी देव, गृहांग जाति के कल्प वृक्षों मे भवनेन्द्र (भवनवासी) यथायोग्य सुखपूर्वक बैठते हैं । __इस वन में चारों दिशाओं में एक-एक सिद्धार्थ वृक्ष बीच में है, जिसके मूल में सिद्ध प्रतिमा विराजमान है। जैसा पहिले चैत्यवृक्षों का वर्णन किया है उसी प्रकार इनका वर्णन जानना। इतना विशेष है: ये कल्पवृक्ष इच्छा किये अनुसार फल को देनेवाले हैं। कल्पवृक्षों के वन में भी कहीं बावड़ी, कहीं नदी, कहीं बालू के ढेर के समान रत्नमय धूल के पुंज हैं, कहीं सभागृह, प्रासाद इत्यादि अनेक सुखरुप स्थानों को धारण किये हैं।
इस वन वीथी के भीतर रुपामई वनवेदी है। वह तीन- तीन खण्ड के ऊँचे चार द्वारों सहित है तथा पूर्व में वर्णित वेदी के समान तोरण आभरण मंगल द्रव्यों से युक्त है।
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