Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
[३५३
यत्न किये ही उत्पन्न हो जाता है। इसका फल अनन्त दुःखों से व्याप्त तिर्यंचगति में परिभ्रमण करना है। यह क्षायोपशामिक भाव है, इसका काल अन्तर्मुहूर्त ही है।
जिसके हृदय में आर्तध्यान होता है उसके बाह शरीर पर ऐसे चिन्ह होते हैं : शोक, शंका, भय, प्रमाद, कलह, चिन्ता, भ्रम, भ्रान्ति, उन्माद, बारंबार निद्रा, अंग में जड़ता, श्रम मूर्छा इत्यादि चिह्न प्रकट होते है। इस प्रकार आर्तध्यान का स्वरुप कहा है।
रौद्रध्यान और उसके भेदः अब आगे चार प्रकार का रौद्रध्यान त्यागने योग्य है, उनका स्वरुप कहते हैं। हिंसानंद , मृषानन्द, स्तेयानंद, परिग्रहानन्द-ये चार प्रकार के रौद्रध्यान हैं
हिंसानंद रौद्रध्यान (१): प्रथम हिंसानन्द रौद्रध्यान का ऐसा स्वरुप जानना। अपने द्वारा प्राणियों के समूह की हिंसा होने पर जो आनन्द उत्पन्न होता है वह हिंसानंद रौद्रध्यान है। हिंसा के कारण जो विषय हैं उनमें अनुराग होना; जलयंत्र (बांध ) बंधाने में, तालाब, बावडी, कुआ, नहर, नदी, नाला खुदवाने में अनुराग होना; वन कटवाने में, बाग-बगीचा लगाने में, सड़क खुदवाने में अनुराग होना; ग्राम जलाने में, मकान जलाने में, पर्वत काटने में अनुराग होना; युद्ध होने में, परधन विध्वंस होने में, बारुद के फटाके-आतिशबाजी छूटने में, डाका डालने में, लूटने में अनुराग होना; जलचर थलचर नभचर जीवों की शिकार करने में, जीवों के मारने में, पकड़ने में, बन्दीगृह में रोकने में अनुराग होना; वह समस्त हिंसानन्द रौद्रध्यान हैं।
रौद्रध्यानी का निरन्तर निर्दय स्वभाव होता है, स्वभाव से क्रोध प्रज्वलित रहता है, मद से उद्धत पापबुद्धिरुप रहता है, पाप में प्रवीणतायुक्त है; परलोक की नास्ति, धर्म-अधर्म की नास्ति माननेवाला है। रौद्रध्यानी के पापकर्म में महानिपुणता से अनेक कुबुद्धियाँ पहले से ही तैयार खड़ी रहती हैं। पाप के उपदेश देने में बड़ी निपुणता है, नास्तिकमत के स्थापन में बड़ी निपुणता है, हिंसा के कार्यो में राग की अधिकता है, निर्दयियों की संगति में निरन्तर रहना - वह समस्त हिंसानन्द रौद्रध्यान है। __जिनसे अपने विषय कषाय पुष्ट नहीं होते उनके सम्बन्ध में ऐसा विचार करता हैइनका घात किस उपाय से होगा, इनके मारने में किसे रुचि है, इनका मूल से ही विध्वंस कर देने में कौन निपुण है, ये कितने दिनों में कैसे मारे जायेंगे ? जब ये मारे जायेंगे तब ब्राह्मणों को मनोवांछित भोजन कराऊँगा, देवताओं की पूजन आराधना करूँगा; बैरियों के नाश के लिये धन देकर जाप कराना, दुर्गापाठ कराना, अपने सिर डाढ़ी के बाल नहीं बनवाना, केश बढ़ाना, इत्यादि द्वारा परिणामों में संक्लेश रखना वह समस्त हिंसानन्द है।
जल के, स्थल के विकलत्रय, आकाशचारी जीवों के मारने में, बलि देने में, बांधने में, छेदने में जिसे बड़ा यत्न तथा जीवों के नख, नेत्र, चाम उखाड़ने में, जीवों के लड़ाने में जिसे बड़ा अनुराग हो उसे हिंसानन्द है। इसकी जीत, इसकी हार, इसका तिरस्कार, इसका मरण, इसके धन का नाश, इसके स्त्री-पुत्र का मरण-वियोग हो जाये- इस प्रकार चिन्तवन व इस प्रकार के सुनने में, देखने में स्मरण करने में अनुराग होना वह हिंसानन्द है
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com