Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार बैरी भी उपकार, दान, सन्मान आदि करने से अपने मित्र हो जाते हैं, तथा अपने अति प्यारे पुत्र भी विषयों को रोकने से अपमान-तिरस्कार आदि करने से क्षण मात्र में अपने शत्रु हो जाते हैं। अत: किसी का कोई मित्र भी नहीं है, शत्रु भी नहीं हैं। उपकार-अपकार की अपेक्षा ही मित्रपना-शत्रुपना है। संसारियों का जो अपना विषय- अभिमान पुष्ट करे वह मित्र है, जो विषय-अभिमान रोके वह शत्रु है।
जगत का ऐसा स्वभाव जानकर अन्य में राग-द्वेष का त्याग करो। यहाँ जो बहुत प्यारे स्त्री, पुत्र, मित्र, बांधव तुम्हारे हैं वे सभी स्वर्ग मोक्ष का कारण जो धर्म, संयम, वीतरागता है, उनमें अत्यन्त विध्न करनेवाले हैं; वे हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि महान अनीतिरुप परिणाम कराकर नरक आदि कुगति पाने का बंध कराते हैं, वे ही बड़े बैरी हैं। इस जीव को जो मिथ्यात्व, विषय-कषाय आदि से रोक कर संयम में , दशलक्षण धर्म में प्रवृत्ति कराते हैं वे मित्र हैं, वे निर्ग्रन्थ गुरु ही हैं।
यह आत्मा स्वभाव से ही शरीर आदि से भिन्न लक्षणवाला चेतनामय है; देह पुद्गलमय अचेतन जड़ है। जब देह ही भिन्न है, अन्य है, विनाशीक है तो इसके संबंधी स्त्री, पुत्र, मित्र, कुटुम्ब, धन, धान्य, स्थान आदि भिन्न कैसे नहीं होगें ? यह शरीर तो अनेक पुद्गल परमाणुओं के समूह से मिलकर बना है; वे शरीर के परमाणु भिन्न-भिन्न होकर बिखर जायेंगे और आत्मा चैतन्य स्वभाव अखण्ड, अविनाशी बना रहेगा। अतः सभी संबंधों में अन्यपने का दृढ़ निर्णय करो।
कर्म के उदय जनित राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोधादि भी भिन्न हैं, विनाशीक है, तो अन्य शरीरादि के संबंधी अन्य कैसे नहीं होंगे? इसलिये अपना ज्ञान-दर्शन स्वभाव के सिवाय अन्य जो ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, राग-द्वेषादि भावकर्म, शरीर परिग्रह आदि नोकर्मये सभी आत्मा से भिन्न हैं। ये जो पुत्रादि हैं, वे तो अन्य गति से आये पाप, पुण्य, स्वभाव, कषाय, आयु, कायादि से संबंधरुप दिखाई देते ही हैं। तुम्हारा स्वभाव पाप-पुण्य और इन सबसे अन्य है। अतः अन्यत्व भावना भावो, जिससे इनकी ममताजनित घोरबंध का अभाव हो जाये। इस प्रकार अन्यत्व भावना का वर्णन किया।५।।
अशुचि भावना (६) अब अशुचि भावना के स्वरुप का वर्णन करते हैं। हे आत्मन् ! इस देह के स्वरुप का चितवन करो। माता के महामलिन रुधिर-पिता के वीर्य से उत्पन्न हुआ है; महादुर्गन्धित मलिन गर्भ में रुधिर-मांस से भरे जरायुपटल में नव माह पूर्ण करके महादुर्गन्धित मलिन योनि में से निकलने का घोर संकट सहता है। सप्त धातुमय-रुधिर, मांस, हाड़, रस, मेधा, मज्जा, वीर्य, चाम व नसों के जालमय देह धारण की है जो मल, मूत्र, लट, कीड़ों से भरी महा अशुचि है। नव द्वारों से निरन्तर दुर्गन्धित मल को बहाती रहती है। जैसे मल का बनाया हुआ घड़ा, मल से ही भरा, फूटा हुआ चारों तरफ मल को ही बहाता रहता है; वह जल से धोने पर कैसे पवित्र हो सकता है ?
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