Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३५२]
वृद्धि चाहना, परके कुटुम्ब का - संपदा का नाश चाहना, अपने कुटुम्ब की वृद्धि चाहना, धन का लाभ चाहना, अपना दीर्घकाल तक जीवित रहना चाहना, अपने वचन की सिद्धि चाहना, अपने कपट - झूठ की गोप्यता चाहना, अन्य जीवों की अपने से न्यूनता चाहना, अपनी सभी के बीच में उच्चता चाहना, समस्त भोगों की वांछा चाहना, अपना निरोगपना चाहना, अपना अद्भुत रुप, संपदा, आज्ञाकारी पुत्र, चतुर सेवक इत्यादि की जो आगामी काल में वाछां करना है, वह निदान आर्तध्यान है।
संसार परिभ्रमण का कारण, पुण्य का नाश करनेवाला जानकर कभी निदान नहीं करो । इच्छा से तो पाप का बंध होता है । भोगों की अभिलाषा तथा अपने अभिमान की पुष्टि चाहना तो अपने एकत्र किये पुण्य का नाश करना है। निर्वाछक परिणाम से ही पुण्य बंध होता है अपनी उच्चता की वांछा तथा विषयों का लोभ तीव्रकषायी पर्याय - बुद्धिवाले के बिना कौन करता है ? विषय और यह अभिमान कितने दिन रहेगा ?
1
अनन्तानन्त पुरुष इस पृथ्वी पर संपदावान, बलवान, रुपवान, विद्यावान होकर मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं, यहाँ पर काल अचानक आकर ग्रस लेगा। इतने समय तक भोगों ने क्या कर दिया? ये भोग अतृप्ति के करनेवाले हैं, दुर्गति को ले जानेवाले हैं, चाहने से कभी प्राप्त भी नहीं होते हैं। असंख्यात जीव चाह की दाह के मारे जलते रहते हैं । मरण निकट आ जाता है तब भी चाह ही करते रहते हैं । चाह से सारा जगत जल रहा है । जगत के जीवों कें ऐसी तृष्णा है कि जो तीनलोक के राज्य से भी तृप्त नहीं होती है, फिर किसकिस को समस्त लोक का राज्य मिलेगा ? यह धूल समान अचेतन संपदा है, इससे आत्मा को क्या साध्य है, क्या लाभ होनेवाला है ?
लोक में संपदा, परिग्रह, अभिमान महादुःखदायी है। अपनी अविनाशी ज्ञान की संपदा, सुख संपदा, स्वाधीनता को पाकर सुखी होने का यत्न करो। संतोष समान सुख नहीं है, संतोष समान तप नहीं है। प्राप्त हुए विषयों में संतोष रखकर वांछारहित होकर जो रहते हैं उनके बड़ा तप है, कर्म की निर्जरा करते हैं। जो वांछा करते रहते हैं उन्हें क्या मिलता है ? अनन्तानन्त जीव विषय-कषायों की प्राप्ति के लिये तरसते - तरसते मरकर दुर्गति को चले जाते हैं।
अतः यदि तुम्हारे हृदय में जिनेन्द्र के धर्म की सत्यार्थ रुचि हुई है तो गई वस्तु का चिन्तवन नहीं करो, आगामी की वांछा नहीं करो, तथा वर्तमान काल में जो कर्म का शुभअशुभ रस उदय में आया है उसे रागद्वेष रहित होकर भोगो । यह जो शुभ - अशुभ का संयोग है वह हमारा स्वभाव नहीं है, कर्म का उदय है । इस प्रकार निश्चय करके आगामी वांछा का अभाव करके निदान - नाम के आर्तध्यान को जीतना चाहिये।४।
इस प्रकार आर्तध्यान का चार प्रकार का स्वरुप कहा है। यह छठवे गुणस्थान तक उत्पन्न होता है। निदान आर्तध्यान पाँचवें गुणस्थान तक ही होता है, छठवें गुणस्थान में निदान नहीं होता है। यह आर्तध्यान कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है, पापरूप अग्नि को बढ़ाने के लिये ईंधन के समान है। यह आर्तध्यान अनादिकाल के अशुभ संस्कार से बिना
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