Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

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Page 409
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३६६] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार आत्मीक सुखरुप अमृत को प्रकट करने के लिये चंद्रमा का उदय है, अक्षय अविनाशी जीवों का निज धन है। मुक्ति की ओर प्रयाण करनेवाले जीवों का प्रधान मित्र है, गमन का ढोल है, विनय-न्याय-इंद्रियदमन-शील-संयम–सन्तोषादि गुणों को उत्पन्न करनेवाला है। ऐसे परमागम का चिन्तवन ध्यान अनुभव वह आज्ञा विचय धर्मध्यान है। इस प्रकार आज्ञा विचय धर्मध्यान का वर्णन किया।१। अपाय विचय धर्मध्यान (२) : अपाय विचय धर्मध्यान का स्वरुप इस प्रकार जानना। मिथ्यात्व के संयोग से सन्मार्ग का अपाय ( नाश) का ज्ञान करना, सन्मार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग का अभाव करने वाला मिथ्यात्व ही है, ऐसा चिन्तवन करना वह अपाय विचय है। मिथ्यादर्शन से जिनके ज्ञान नेत्र ढंक रहे हैं, उनके आचार-विनयादि सभी कार्य संसार के बढ़ाने के लिये हैं क्योंकि मिथ्यादृष्टि के अंधे के समान विपरीत ज्ञान की बहुलता है। जैसे कोई जन्म का अंधा बलवान पुरुष भी भले मार्ग से दूर छूटा हुआ, बिना सत्य मार्ग का उपदेश देने वाले द्वारा चलाये, नीचे-ऊँचे पर्वत पर, विषम पाषाण, कठोर ढूँठ, झाड़, खाई, नाले, काँटों से भरी, विषम जमीन पर पड़ा हुआ, हलन-चलन क्रिया करता हुआ भी उपदेश दाता के बिना मार्ग में गमन करने में समर्थ नहीं होता है; उसी प्रकार सर्वज्ञ के कहे मार्ग से पराङ्मुख जीव मोक्ष का इच्छुक होने पर भी सन्मार्ग के ज्ञान बिना संसार में बहुत दूर ही परिभ्रमण करता है। इस प्रकाश सन्मार्ग का प्रकाश का अभाव हुआ है, ऐसा चिन्तवन करना अपाय विचय धर्मध्यान है। कुमार्ग के प्रवर्तन का अभाव व नाश का चिन्तवन करना भी अपाय विचय है। अहो! विपरीत ज्ञान–श्रद्धान के धारक मिथ्यादृष्टि कुवादियों के द्वारा उपदेशित कुमार्ग से ये प्राणी कैसे बचें ? ये प्राणी कुदेव, कुधर्म, कुगुरुओं के सेवन से कैसे दूर हों ? ऐसा विचार करना वह अपाय विचय है। पाप के कारणों में काया में प्रवर्तन का अभाव , वचन के प्रवर्तन का अभाव, मन में पाप की भावना का अभाव का चिन्तवन करना वह अपाय विचय धर्मध्यान है। जिसमें उपाय सहित कर्मों के नाश का चिन्तवन किया जाता है उसे ज्ञानीजन अपाय विचय कहते हैं। श्री सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहा जो रत्नत्रय रुप मोक्षमार्ग है उसे नहीं प्राप्त करके, प्राणी संसाररुप वन में चिरकाल से नष्ट हो रहे हैं, जिनेश्वर का उपदेशरुप जहाज प्राप्त नहीं करके बेचारे प्राणी संसार समुद्र में निरन्तर डावक-डूबा होकर दुःखों को भोग रहे हैं। महान कष्टरुप अग्नि से जलते हुए संसाररुप वन में भ्रमण करते हुये भी मैंने सम्यग्ज्ञानरुप समुद्र का तट प्राप्त कर लिया है। यदि अब सम्यग्ज्ञान के शिखर को प्राप्त होकर उससे दूर होऊँगा तो संसाररुप अंधकूप में गिरने से मुझे कौन रोक सकेगा ? अनादि के भ्रम से उत्पन्न हुए मिथ्यात्व, अविरति, कषायादि कर्मबन्ध के कारण मेरे दुर्निवार हैं। यद्यपि मैं तो शुद्ध हूँ, दर्शन- ज्ञानमय निर्मल नेत्र का धारक सिद्ध स्वरुप हूँ, तो भी उन कर्मों के द्वारा खंडित किया गया मैं चिरकाल से संसाररुप कीचड़ में खेदखिन्न ही होता Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com

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