Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer

View full book text
Previous | Next

Page 433
________________ ३९०] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार , ये सभी दुःख दूसरों का अन्याय से धन छीनने का, कपटी -छली होकर दान लेने का, विश्वास घात करने का, अभक्ष्य भक्षण करने का, रात्रि में भोजन करने का निर्माल्य देव द्रव्यभक्षण करने का, जल तिर्यच गति में भोगते हैं। दूसरों को कलंक लगाने का, अपनी प्रशंसा करने का, दूसरों की निंदा करने का, दूसरों के छल ढूँढ़ने का, दूसरों के मीठे भोजन की लालसा का, अति मायाचार करने का फल तिर्यंच गति में भोगते हैं । यहाँ असंख्यात अनन्तभव तिर्यंचगति में बारंबार धारण करता हुआ, मायाचारादि व तीव्रराग के परिणामों से तिर्यंचगति के कारण-नरकगति के कारण नये कर्मों का बंध करता हुआ अनन्तकाल व्यतीत करता है । ये सब मिथ्या श्रद्धान, मिथ्या ज्ञान, मिथ्या आचरण का फल है। मनुष्यगति के दुःख यहाँ मनुष्यगति में कई तो तिर्यंचों के समान ज्ञान रहित हैं। कितने ही के गर्भ में आते ही पिता मर जाता है तब दूसरों की जूठन खाकर, भूख-प्यास को सहता हुआ, दूसरों द्वारा तिरस्कार करना सहता हुआ बढ़ता है। दूसरों का दासपना करता है; बचपन से ही तिर्यंचों के समान भार ढोता है; एक सेर अनाज से पेट भरने के लिये, एक बोझा सिर पर, एक बोझी पीठ पर, एक बोझा हाथों में लेकर बारा कोस तक पांवो से चला जाता है; अन्न का, घी का तेल का, नमक का धातु का कठोर भार ढोता है । 9 कोई दिनभर ही पानी का बोझा ढोते रहते हैं; कोई विदेशों में रात-दिन गमन करते हैं; गमन समान दुःख दूसरा नहीं है । बीस-तीस कोस पेट भरने के लिये प्रतिदिन दौड़ना पड़ता है। कोई पत्थर मिट्टी आदि का बोझा निरन्तर ढोते रहते हैं; कोई दूसरों की सेवा करते हुए पराधीनता से मनुष्य जन्म व्यतीत करते हैं। कोई लुहार होकर लोहा गढ़कर पेट भरते हैं, कोई लकड़ी चीरते हैं, काटते- फाड़ते हैं, बनाते हैं तब भोजन मिलता है। कोई मैले कपड़े धोते हैं, कोई कपड़ा रंगते हैं, कोई छापते हैं, कोई सिलते हैं, कोई तागते हैं, कोई बुनते हैं, कोई तिर्यंचों की सेवा करते हैं तो भी पेट नहीं भरता है। कोई पीसते हैं; कोई घास का बोझा ढोते हैं; लकड़ी का बोझा ढोते हैं; कोई चमड़े का छीलना बनाना आदि कार्य करते हैं; कोई दलते हैं, कोई खोदते हैं, कोई रसोई बनाते हैं; कोई अग्नि जलाने के (संस्कार) कार्य करते हैं, कोई भट्टी चलाते हैं, कोई घी, तेल, क्षार, नमक आदि से आजीविका करते हैं। कोई दीनपना दिखाकर घर-घर से मांगते हैं, कोई रंक होकर फिरते हैं, कोई रोते हैं, कोई कर्म के आधीन होकर अपने को भूलकर व्यर्थ मनुष्य जन्म व्यतीत करते हैं । कोई चोरी करते हैं, छल करते हैं, असत्य बोलते हैं, व्यभिचार करते हैं। कोई चुगली करते हैं, कोई गली में लूट लेते हैं, कोई सड़कों पर लूटते हैं, कोई युद्ध में चल जाते हैं, कोई समुद्र मेंविषम वनों में प्रवेश करते हैं कोई नदी में उतरते हैं, कुआ जोतते हैं, खेती करते हैं, नाव चलाते हैं, बोते हैं, नुनाई करते हैं। कोई मिट्टी के बर्तन बनाते हैं, कोई आभूषण आदि बनाते हैं। कोई मल-मूत्र को झाड़ते हैं, कोई मल-मूत्र का भार ढोते हैं, कोई भाड़ भूँजते हैं और जन्म पूरा करते हैं । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527