Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३७६]
यह लक्ष्मी क्षणभंगुर है। यह लक्ष्मी कुलीनों में नहीं रमती है। धीर में, शूर में पण्डित में, मूर्ख में, रूपवान में, कुरुप में, पराक्रमी में, कायर में, धर्मात्मा में, अधर्मी में, पापी में, दानी में, कृपण में, कहीं भी नहीं रमती है। यह तो जिसने पूर्व जन्म में पुण्य किया है उसकी दासी है। कुपात्र दानादि से, कुतपादि से उत्पन्न होकर प्राणियों को खोटे कुभोगों में , कुमार्ग में लगाकर दुर्गति में पहुँचानेवाली है।
इस पंचमकाल में तो कुपात्रदान करने से, कुतपस्या करने से ही लक्ष्मी उत्पन्न होती है। यह लक्ष्मी बुद्धि को बिगाड़कर, महादुःख से उत्पन्न होकर, महादुःख से भोगकर, पापों में लगाकर, दान-भोग बिना ही छोड़कर, आर्तध्यान पूर्वक मरण कराकर तिर्यंचगति में उत्पन्न करा देती है।
इसलिये इस लक्ष्मी को तृष्णा बढ़ानेवाली, मद उत्पन्न करनेवाली जानकर दुःखीदरिद्रियों के उपकार में, धर्म के बढ़ाने में, धर्म के आयतनों में, विद्या पढ़ाने में, वीतराग सिद्धान्त लिखवाने में, शास्त्र छपवाने में लगाकर सफल करो। न्याय के प्रामाणिक भोगों में जिस प्रकार धर्म नहीं बिगड़े उस प्रकार लगाओ। यह लक्ष्मी जल की तरंग के समान अस्थिर है, अतः अवसर में दान उपकार कर लो, परलोक साथ नहीं जायेगी, अचानक ही छोड़कर मर जावोगे। जो निरन्तर इस लक्ष्मी का संचय ही करते रहते हैं, दान-भोग में नहीं लगाते हैं, वे अपने आप को ही ठगते हैं। ___ जिन्होंने पाप के आरंभ करके लक्ष्मी को इकट्ठा किया है, महामूर्छा करके कमाया है और उन्होने उसको दसरे के हाथ में दे दी है. अन्य देश में व्यापारादि द्वारा बढाने के लिये रख दी है, जमीन में बहुत दूर गाड़कर रख दी है वे रात-दिन उसी का चिन्तवन करते हुए दुर्ध्यान से मरकर दुर्गति में जा पहुंचे हैं। कृपण को लक्ष्मी का रखवाला व दास ही जानना।
दूर जमीन में गाड़कर रखनेवाले ने तो लक्ष्मी को पाषण के समान कर दिया, जैसे भूमि में अन्य पाषाण गड़े हैं वैसे ही यह लक्ष्मी भी जानो। उसने राजाओं का, हिस्सेदारों का , कुटुम्बियों का कार्य साधा। अपना शरीर तो राख बनकर उड़ जायेगा-ऐसा प्रत्यक्ष नहीं देखते हैं क्या ? इस लक्ष्मी के समान आत्मा को ठगने वाला दूसरा नहीं है।
लक्ष्मी के लोभ का मारा अपना सब परमार्थ भूलकर रात-दिन घोर आरंभ करता है, समय पर भोजन नहीं करता है, शीत-ऊष्ण की वेदना सहता है, रोगादि के कष्ट को नहीं गिनता है, चितिंत होकर रात्रि में निद्रा भी नहीं लेता है। लक्ष्मी का लोभी अपना मरण होने को भी नहीं गिनता है, युद्ध के घोर संकट में भी चला जाता है, समुद्र में भी चला जाता है, घोर भयानक वन-पर्वतों में चला जाता है, धर्म रहित देशों में भी चला जाता है, जहाँ अपने कुल का , जाति का , घर का कोई भी नहीं दिखाई देता है ऐसे स्थानों में (विदेशों में) भी केवल लक्ष्मी के लोभ में भ्रमण करता-करता मरण करके दुर्गति में जा पहुँचता है। लोभी नहीं करने योग्य, तथा नीच-भील-चांडालों के करने योग्य कार्यो को भी करता है।
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