Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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घी-तेलादि में छोंकना, बाँटना, गर्मराख में झुलसना , घसीटना, चीरना, रगड़ना, मसलना, दबाना, धानी में पेलना, कूटना, आदि घोर दुःख वनस्पतिकाय में यह जीव पाता है। ___ एकेन्द्रिय पर्याय में बोलने को जिह्वा नहीं, देखने को नेत्र नहीं, सुनने को कान नहीं हाथ-पैर आदि अंग-उपांग नहीं, कोई रक्षक नहीं, असंख्यात अनन्तकाल तक घोर दुःखमय एकेन्द्रिय पर्याय से निकलना नहीं होता है। मिथ्यात्व, अन्याय, अभक्ष्यादि के प्रभाव से जीव के समस्त ज्ञानादि गुण नष्ट हो जाते हैं। एकेन्द्रिय में किंचिन्मात्र पर्यायज्ञान रहता है। आत्मा का समस्त प्रभाव, शक्ति, सुख नष्ट हो जाता है; जड़-अचेतन के समान हो जाता है। किंचिन्मात्र ज्ञान की सत्ता एक स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा ज्ञानियों को जानने में आती है। समस्त शक्ति रहित केवल दुःखमय एकेन्द्रिय पर्याय में जन्म-मरण वेदना का दुःख भोगता है।
विकलत्रय जीवों के दु:ख : कदाचित् कोई त्रसपर्याय पाता है विकल चतुष्क में घोर दुःख भोगता है। लपलपाती जिह्वा इंन्द्रिय का सताया तीव्र क्षुधा-तृषामय वेदना का मारा निरन्तर आहार को ढूंढता फिरता है। लट, कीड़ा, अपने मुखफाड़ करके आहार के लिये चपल हुए फिरते हैं। मक्खी, मकड़ी, मच्छर, डांस, भूख के मारे निरन्तर आहार ढूंढते फिरते हैं, रसों में गिर जाते हैं, जल में-अग्नि में गिर जाते हैं, हवा के-वस्त्रों के पछौटे से मर जाते हैं; पशुओं की पूछों से-खुरों से मर जाते हैं; मनुष्यों के नखों से, हाथ-पैर आदि के आघात से चिंथ जाते हैं, दब जाते हैं, मल कफादि में फंसकर मर जाते हैं।
विकलत्रय जीवों की कोई दया नहीं करता है। चिडिया. कौवा चगकर खा जाते हैं. छिपकली, बिसमरा, सर्प इत्यादि को ढूंढ-ढूंढ़ कर मारते हैं; पक्षी बड़ी मजबूत वज्र जैसी चोंचों से चुग लेते हैं। कोई चीर डालता है, कोई आग में जला देता है। इल्ली, घुन, लट इत्यादि कीड़ों से भरे हुए अनाज को दलते हैं, पीसते हैं, पेलते है, उखली में कूटकर टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं, भाड़ में भून देते हैं, राँधते हैं। बेर आदि फलों में, शाक-पत्तों में विदारते हैं; छीलते हैं, कूटते हैं, छोंकते हैं, चबा जाते हैं, कोई दया नहीं करता है।
मेवों में, फलों में, दवाइयों में पुष्प-पल्लव-डाली-जड़-वल्कलों में; मर्यादा से अधिक काल के सभी भोजन, दूध, दही, रसों में बहुत विकलत्रय व पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं; वे सब खा लिये जाते हैं. जीव-जन्त चग जाते हैं, अग्नि में जल जाते हैं, कौन दया करता है ? __विकलत्रय जीवों की उत्पत्ति से वर्षा ऋतु में सर्व भूमि ढंक जाती है, और वे पशुओं के पैरों से, मनुष्यों के पैरों से, घोड़ों के खुरों से, रथ, बैलगाड़ी आदि से चिंथ जाते हैं, कट जाते हैं; पैर टूट जाते हैं, माथा कट जाता है, पेट चिर जाता है, कौन दया करता है ? कोई उनकी तरफ देखता ही नहीं हैं। इस प्रकार विकलत्रय रुप तिर्यंचों का अनेक दुःखों सहित मरण होता है।
विकलत्रय जीव क्षुधा-तृषा से, शीत-ऊष्ण की वेदना से; वर्षा की, पवन की, गाड़ियों की बाधा से मर जाते हैं। भाटा, ठीकरा, माटी का ढिगला, लकड़ी, मल, मूत्र, गर्म पानी, अग्नि इत्यादि के
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