Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३६८]
बुद्धि, बल, पराक्रम, इच्छा इत्यादि एक-एक जीव के कर्म के उदय के अनुसार भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं, किसी के अन्य किसी से नहीं मिलते है। इसलिये अनेक जीवों के अनेक प्रकार के उदय की जाति देखकर राग-द्वेष के वश नहीं होओ।
जैसे वन में बिहार करता हुआ पुरुष वन में लाखों-करोड़ों वृक्ष, लता, छोटे, बडे, अनेक प्रकार के देखता है, किस-किस में रागद्वेष करे ? कोई वृक्ष ऊँचा है, कोई नीचा है, कोई बहुत छायादार है, कोई थोड़ा छायादार है, कोई फूल-फल सहित है, कोई निष्फल है, कोई कडुवा है, कोई मीठा है, कोई चिरपरा है, कोई जहर से भरा है, कोई अमृत से भरा है, कोई काँटों सहित है, कोई काँटों रहित है, कोई वक्र है, कोई सरल है, कोई जीर्ण है, कोई नवीन है, कोई सुगन्धवाला है, कोई दुर्गन्धवाला है इत्यादि समस्त रचना पूर्व कर्म के संस्कार से एकेन्द्रिय जीवों के भी दिखाई देती है। कोई को काटते हैं, फाड़ते हैं, कतरते हैं, छीलते हैं, रांधते हैं, छौंकते हैं, जलाते हैं, चबाते हैं, रगड़ते हैं, घसीटते हैं, चीथते हैं, गलाते हैं, सुखाते हैं, पीसते हैं, बांधते हैं, मोड़ते हैं, इत्यादि एकेन्द्रिय वनस्पति में भी कर्म के उदय की अनेक जातियाँ देखकर अपने वा अन्य के पुण्य-पाप के उदय की अनेक तरंगें देखकर साम्यभाव धारण करो, हर्ष विषाद नहीं करो।
कर्म के उदय की लहर समय-समय में भिन्न-भिन्न है। भगवान सर्वज्ञ वीतराग ने जिस क्षेत्र में, जिस काल में, जिस प्रकार होना देखा है, वही प्रमाण है, उसी प्रकार होगा। कर्म के उदय को अपने स्वभाव से भिन्न जानो। अनेक जीव-पुद्गलों की रचना तथा संयोग-वियोग आदि देखकर राग-द्वेष रहित होकर परम साम्यभाव को धारण करो, जिससे पूर्व के बांधे हुए कर्म की निर्जरा हो जाये तथा नवीन बन्ध नहीं हो। इस प्रकार तप के प्रकरण में विपाक विचय नाम के धर्मध्यान का वर्णन किया ।३।।
__ईश्वर कर्तृत्व निषेध संस्थानविचय धर्मध्यान (४) : अब संस्थानविचय नाम के चौथे धर्मध्यान के स्वरुप का वर्णन करते हैं। यह जो सभी तरफ अनन्तानन्त आकाश है वह स्वयं अपने आधार से है। उसके बिलकुल बीच में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल जितने आकाश के क्षेत्र में है वह लोक है। वह लोक किसी का बनाया हुआ नहीं है, अनादि निधन है। ___ यहाँ कोई अन्य वादी कहता है - इस जगत का कर्त्ता कोई ईश्वर है, क्योंकि कर्ता के किये बिना कोई भी सप वस्तु नहीं होती है ?
उससे पूछते हैं- १ यदि किये बिना कोई भी सप वस्तु नहीं होती है, तो ईश्वर को किसने किया है ? ईश्वर भी सत् वस्तु है, ईश्वर को करनेवाले के नाम को बताना चाहिये।
यदि कहोगे - इस ईश्वर का कर्ता भी कोई दूसरा है। तो उस दूसरे को किसने किया है ? यदि उस दूसरे का कर्त्ता किसी अन्य को कहोगे - तो उस अन्य को किसने किया है ? इसी प्रकार सेचते रहने में अनवस्था नाम का दोष आवेगा।
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