Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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ही यदि दूसरे को सुख होता है तो मेरी क्या हानि है ? मुझे पीड़ा देनेवाले पर यदि मैं क्रोध नहीं करूँगा तो बैरी के पुण्य का नाश हो जायेगा, व मेरे आत्मा के हित की सिद्धि होगी। यदि पीड़ा
ले पर मैं क्रोध करूँगा तो मेरे पुण्य का नाश हो जायगा. हित का नाश हो जायगा व दुर्गति मिलेगी प्राणों का नाश होने पर भी दुष्टों के प्रति क्षमा करना ही एक हित है, ऐसा सत्पुरुष कहते हैं। अतः आत्म कल्याण की सिद्धि के लिये मुझे क्षमा ही ग्रहण करना चाहिये।
दुष्टों द्वारा दुर्वचनादि से पीड़ा देने से मुझमें जो क्षमा प्रगट हुई है, वह मेरे पुण्य के उदय से ऐसी परीक्षा भूमि प्रकट हुई है जहां मैंने इतने समय से वीतराग का धर्म धारण किया है, सो अब क्रोधादि के निमित्त से साम्यभाव हुआ कि नहीं हुआ है - ऐसी परीक्षा करना चाहिये। साम्यभाव तो वही प्रशंसा योग्य है, वही कल्याण का कारण है जो मारने के इच्छुक निर्दयी द्वारा मलिन नहीं किया जा सके।
बहुत समय से शास्त्र का अभ्यास करके व साम्यभाव करके क्या साध्य है, यदि प्रयोजन के समय वह व्यर्थ हो जाय ? धैर्य वही प्रशंसा योग्य है, जो दुष्टों के कुवचनादि होने पर भी नहीं छूटे, दृढ़ बना रहे। उपद्रव आये बिना तो सभी लोग सत्य, शौच, क्षमा के धारक बने रहते हैं। जैसे चंदन के वृक्ष को कुल्हाड़ी काटे तो चंदन का वृक्ष कुल्हाड़ी के मुख को सुगंधित ही करता है, वैसे ही जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है उसको वैसी ही सिद्धि की प्राप्ति होती है। ___अन्य के द्वारा किये उपसर्ग से तथा स्वयमेव आये उपसर्ग से जिसका चित्त कलुषित नहीं होता है वह अविनाशी संपदा को प्राप्त होता है। अज्ञानी अपने भावों द्वारा पूर्व में किये गये पाप कर्मों पर तो क्रोध नहीं करता है, किन्तु कर्म का फल देने के जो बाह्य निमित्त हैं उनके ऊपर क्रोध करता है। जिस कर्म के नाश होने से मेरे संसार का संताप नष्ट हो जाये यदि वह कर्म स्वयमेय भोगने में आ गया और नष्ट हो गया तो मुझे वांछित सख की सिद्धि हो गई।
इस संसाररूप वन में अनन्त संक्लेश भरे हैं। इसमें रहनेवालों को अनेक प्रकार के दुःख क्या सहने योग्य नहीं हैं ? संसार में तो दुःख ही है। यदि इस संसार में सम्यग्ज्ञान विवेक से रहित, जिनसिद्धान्तों से द्वेष करनेवाले, महानिर्दयी, परलोक के हित का विचार करने की जिनके पास बुद्धि नहीं है, क्रोधरूप अग्नि से प्रज्वलित, दुष्टता सहित, विषयों की लोलुपता से अंधे, हठग्राही, महान अभिमानी, कृतघ्नी ऐसे बहुत दुष्टजन नहीं होते, तो उज्ज्वल बुद्धि के धारक सत्पुरुष व्रत-तपश्चरण करके मोक्ष के लिये उद्यम कैसे करते ? ऐसे क्रोधी, दुर्वचन बोलनेवाले, हठग्राही, अन्यायमार्गियों की अधिकता देख करके ही सत्पुरुष वीतरागी हुए हैं।
मैं बड़े पुण्य के प्रभाव से परमात्मा के स्वरूप का ज्ञाता हुआ तथा सर्वज्ञ द्वारा उपदेशित पदार्थों का भी निर्णयरूप ज्ञान किया, संसार के परिभ्रमण के दुःखों से भयभीत होकर वीतराग के मार्ग में भी प्रवर्तन किया; अब यदि मैं भी क्रोध के वश में होऊँगा तो मेरा ज्ञानचारित्र सभी निष्फल हो जायेगा, तथा धर्म का अपयश करानेवाला होकर दुर्गति का पात्र हो जाऊँगा।
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