Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ- सम्यग्दर्शन अधिकार
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पीट करने लगें तो गृहस्थ भी मुनियों के कायक्लेश तप की भावना करते हुए समता भाव से सहता है, कायरता नहीं दिखाता है। निर्धनता से उत्पन्न भूख प्यास, गर्मी, सर्दी आदि के दुःख की वेदना कर्म के उदय से आ जाये तो वहाँ कायर नहीं होना, धर्म की शरण से सहना वही कायक्लेश तप है।।
मुनीश्वर तो इस प्रकार का कायक्लेश तप उत्साह पूर्वक धारण करते हैं। हम गृहस्थ कायक्लेश से बहुत दूर रहते हैं, तो भी यदि असाता कर्म के उदय से दुःख आ गया तो भयभीत हो जाने पर छोड़ेगा नहीं। यदि धैर्य धारण करके सहूगाँ तो कर्म रस देकर अवश्य निर्जरित हो जायेगा; किन्तु यदि कायरता करूँगा-क्लेश करूँगा तो भी सहना तो पड़ेगा, भोगना तो पड़ेगा, कर्म के उदय के दया नहीं है। यदि कायर होकर दुःखी होते हुये, उदय में आया है तो भी मैं ही भोगूंगा, और इस प्रकार भोगने से आगे के लिये बहुत गुणा बंध करूँगा। इसलिये जिनेन्द्र के वचनों की शरण ग्रहण करके कर्म के उदय में धैर्य धारण करना ही श्रेष्ठ है।
गृहस्थ के जब अन्तराय कर्म का उदय आता है तब पेट भरने के लिये भोजन भी पूरा नहीं मिलता है, घी आदि रस नहीं मिलते हैं या थोड़ा मिलते हैं; उस समय उसे थोड़े में ही संतोष रखना चाहिये, पर का वैभव देखकर वांछा नहीं करना चाहिये, समता भावरुप रहे तो सहज ही काय क्लेश तप होता है, बहुत निर्जरा करता है।६। ___ यह छह प्रकार के बाह्य तप का वर्णन किया। बाह्य अर्थात् दूसरे को प्रत्यक्ष जानने में आता है, वह बाह्य भोजनादि के त्याग से होता है, व अन्य गृहस्थ अन्यमती भी धारण कर लेता है इसलिये इन्हें बाह्य तप कहा है। जैसे बहुत बड़े घास के ढेर को अग्नि जला देती है, वैसे ही पूर्व संचित कर्म राशि को यह जला देता है, इसलिये तप कहा है। शरीर व इंद्रियों को संतापित करके विषयों में मग्न नहीं होने देता है. अत: इसे तप कहते हैं। जैसे तपाया हुआ स्वर्णयुक्त पाषाण कीट छोड़कर शुद्ध स्वर्ण बन जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी इसके प्रभाव से कर्ममल रहित हो जाता है, अतः भगवान ने इसे तप कहा है।
अंतरंग तप : अब छह प्रकार के अभ्यन्तर तप का वर्णन करते हैं। प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान- ये छह भेद हैं। प्रायश्चित तप के नौ भेद, संख्यात व असंख्यात भेद हैं। यहाँ पर आलोचना आदि का कथन लिखने से कथनी बहत हो जायेगी. अतः संक्षेप में कहते हैं।
प्रायश्चित तप : जो धर्मात्मा है, वह अपने व्रत-धर्म में कभी दोषरुप आचरण नहीं करता है, अन्य को सदोष आचरण कराता नहीं है, जो दोष सहित आचरण करता है उसे मन-वचन-काय से भला नहीं कहता है। यदि कभी प्रमाद से, भूल से दोष लग जाय तो निर्दोष साधु के निकट जाकर, सरल परिणामों से, दश प्रकार के दोष रहित आलोचना करके, गुरुओं द्वारा दिये प्रायश्चिय को परम श्रद्धा से आदरपूर्वक ग्रहण करता है। हृदय में ऐसी शंका नहीं करता है कि मुझे बहुत प्रायश्चित दे दिया या थोड़ा प्रायश्चित दिया। प्रमाद से एक बार दोष लग गया हो, उसे प्रायश्चित लेकर दूर
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