Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३३२]
तप है। उससे एकान्त में रहनेवाले साधु के हिंसा का अभाव, ममत्व का अभाव, विकथा का अभाव, काम का अभाव होता है तथा ध्यान-अध्ययन की सिद्धि होती है। दूसरा साथ में हो तो बातचीत होती है। उससे ध्यान चलायमान हो जाता है. रागभाव बढ़ जाता है। अतः संयमी एकान्त में ही शयन-आसन करते हैं।
गृहस्थ धर्मात्मा भी पाप से भयभीत होकर, अपने गृहाचार के आजीविका आदि कार्य न्यायमार्ग से, अल्प आरंभादि रुप पाप कार्यों से भी भयभीत होकर, शरीर के स्नान, भोजन आदि कार्य करके एकांत मकान में, अपने घर में, जिनमंदिर में, धर्मशाला में, वन के चैत्यालयादि में, साधर्मी लोगों की संगति में धर्मचर्चा करते हुये, स्वाध्याय, जिनागम का पठन-पाठन . व्याख्यान. जिनागम का श्रवण. पंच नमस्कार का स्मरण करते हए दिन-रात्रि व्यतीत करता है। स्त्री कथा, राजकथा, भोजनकथा, देशकथा कभी भी नहीं करता हुआ काल व्यतीत करता है। काम विकार को बढ़ानेवाले, राग उत्पन्न करनेवाले शयनासन का त्याग करता है। गृहस्थ का भी विविक्त शयनासन तप निर्जरा का कारण है।५।
कायक्लेश तप : मुनिराजों के कायक्लेश नाम का बड़ा तप होता है। एक आसन से बैठना, एक करवट से सोना, मौन रहना; ग्रीष्मऋतु में पर्वत की शिखर पर, पत्थर की शिला के ऊपर, सूर्य के सामने, कायोत्सर्ग धारण करके, तेज धूप, गर्म हवा आदि की घोर वेदना होने पर भी धर्मध्यान में, बारह भावना के चिन्तवन में, परिणामों को स्थिर करके कष्टरुप अनुभव नहीं करना वह कायक्लेश तप है।
वर्षाऋतु में वृक्ष के नीचे योग धारण करते हुए, घोर अंधकार से भरी रात्रि में अखण्ड धाररुप बरसते मेघ से धरती आकाश जलमय हो रहा हो, वृक्षों में एकत्र होकर जल की मोटी धार पड़ती हो, बिजली चमकती हो, बादल गरजते हों, गाज गिरती हो उस समय में धन्य मुनि बिना किसी वस्तु से ढके हुए नग्न शरीर के ऊपर घोर वेदना भोगते हुए भी संक्लेश रहित धर्मध्यान- शुक्लध्यान से जुड़े हुए रहते हैं। यह सब वीतरागता की महिमा है।
शीतऋतु में नदी के किनारे, चौराहे पर, नग्न शरीर के ऊपर बर्फ गिरती हो, महान घोर शीतल पवन चलती हो उस अवसर में दुःखरहित धर्मध्यान से शीतकाल की रात्रि व्यतीत करना तथा दुष्ट जीवों द्वारा किये गये घोर उपद्रव को सहते हुए समता भाव रखना वह काय क्लेश तप है। इस प्रकार परवश दुःख आने पर चलायमान नहीं होने के लिये, देह जनित सुख की अभिलाषा का अभाव करने के लिये, रोगों से चलायमान नहीं होने के लिये, भय को जीतने के लिये, परिषह सहने के लिये कर्मो की निर्जरा के लिये कायक्लेश तप धारण करते हैं।
गृहस्थ के आतापनयोगादि नहीं होते हैं। ये तप तो दिगम्बर साधुओं से ही होते हैं। गृहस्थ तो स्वयं चलकर काय क्लेश तप नहीं करता है। सामायिक के समय में ही कोई क्लेश आ जाय तो चलायमान नहीं होता है। कर्म के उदय से अपनी रक्षा करते हुए भी शीत ज्वर, दाह ज्वर, वातशूल आदि हो जाये व दुष्ट बैरी, धर्मद्रोही, म्लेच्छादि आकर उपद्रव करने लगें, जैल में डाल दें, मार
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