Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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तप है। निर्जन पर्वतों की निर्जन गुफाओं में, भयंकर पर्वतों की दरारों में, तथा सिंह, व्याघ्र, रीछ, सियाली, चीता, हाथी से भरे घोर वन में निवास करना वह तप है। दुष्ट, बैरी, म्लेच्छ, चोर, शिकारी, मनुष्य तथा दुष्ट-व्यंतर आदि द्वारा किये गये घोर उपसर्गों से कंपायमान नहीं होना, धीर–वीरपने से कायरता छोड़कर बैर-विरोध छोड़कर, समताभाव से परमात्मा के ध्यान में लीन होकर सहना वह तप है। समस्त जीवों को उलझाने वाले राग-द्वेष आदि को जीतना, नष्ट करना वह तप है।
याचना रहित, भोजन के अवसर में, श्रावक के घर में, नवधाभक्तिपूर्वक , हाथ में रखा अलोना, कडुआ, खट्टा, लूखा, चिकना, रस-नीरस, निर्दोष , प्रासुक आहार लोलुपता रहित, संक्लेश रहित, एकबार खाना वह तप है। पाँच समितियों का पालना, मन-वचनकाय को चलायमान नहीं करना. रागद्वेष रहित अपने आत्मा का अनुभव करना वह तप है। स्व-पर तत्त्व की कथनी का निर्णय करना, चारों अनुयोग का अभ्यास करते हुए धर्म सहित काल व्यतीत करना वह तप है। अभिमान छोड़कर विनयरूप प्रवर्तना, कपट छोड़कर सरल परिणाम रखना, क्रोध छोड़कर क्षमा ग्रहण करना, लोभ त्यागकर निर्वांछक होना वह तप है। जिससे कर्म के समूह का नाश करके आत्मा स्वाधीन हो जाय वह तप है।
श्रुत के अर्थ का प्रकाश करना, व्याख्यान करना, स्वयं निरंतर अभ्यास करना, दूसरों को अभ्यास कराना वह तप है। तपस्वियों का स्तवन-भक्ति देवों का इन्द्र भी करता है। तप से केवलज्ञान उत्पन्न होता है। तप का अचिन्त्य प्रभाव है। तप करने के परिणाम होना अति दुर्लभ हैं। नारकी, तिर्यंच, देवों में तप करने की योग्यता ही नहीं है; एक मनुष्य गति में ही तप होता है। मनुष्यों में भी उत्तम कुल, जाति, बल, बुद्धि, इंद्रियों की पूर्णता, रागादि की मंदता जिसके होती है, तथा विषयों की लालसा जिसके नष्ट हो जाती है उसी के तप होता है।
तप बारह प्रकार का है - जिसकी जैसी शक्ति हो उसके अनुसार तप धारण करना चाहिये। बालक करे, वृद्ध करे, तरुण करे, धनवान करे, निर्धन करे, बलवान करे, निर्बल करे, सहाय सहित हो वह करे, सहायरहित हो वह करे, भगवान का कहा हुआ तप किसी के भी करने को अशक्य नहीं है। जिस प्रकार से वात-पित्त-कफादि का प्रकोप नहीं हो, रोग की वृद्धि नहीं हो, शरीर रत्नत्रय का सहकारी बना रहे, उस प्रकार अपना संहनन, बल, वीर्य देखकर तप करना चाहिये। देश, काल, आहार की योग्यता देखकर तप करना चाहिये। जैसे तप में उत्साह बढ़ता रहे, परिणामों में उज्ज्लता बढ़ती जाये वैसे तप करना चाहिये। इच्छा का निरोध करके विषयों में राग घटाना वह तप है। तप ही जीव का कल्याण है; तप ही काम को, निद्रा को, प्रमाद को नष्ट करनेवाला है। अतः मद छोड़कर बारह प्रकार के तप में जैसा तप करने की अपने में सामर्थ्य हो वैसा ही तप करना चाहिये। बारह प्रकार के तप का वर्णन आगे तप भावना में अलग से लिखेंने। इस प्रकार उत्तम तपधर्म का वर्णन किया।७।
उत्तम त्याग धर्म अब उत्तम त्यागधर्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं। त्याग इस प्रकार जानना : जिन्होंने धन, सम्पदा आदि परिग्रह को कर्म के उदय जनित पराधीन, विनाशीक, अभिमान को उत्पन्न करनेवाला,
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