Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
३१०]
मिष्ट वचन बोलना भी बड़ा दान है। आदर, सत्कार, विनय करना, स्थान देना, कुशल पूछना ये महादान हैं। दुष्ट विकल्पों का त्याग करो, पापों में प्रवृत्ति का त्याग करो, चार कषायों का त्याग करो, विकथा करने का त्याग करो, दूसरों के सत्य व असत्य दोष कभी नहीं कहो। अन्याय का धन ग्रहण करने का दूर से ही त्याग करो। __ हे ज्ञानी जनो! यदि अपना हित चाहते हो तो दुःखी जीवों को तो दान करो, तथा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान आदि गुणों के धारकों का महाविनय पूर्वक सम्मान करो। समस्त जीवों के प्रति करुणा करो। मिथ्यादर्शन का त्याग करो। राग-द्वेष-मोह के धारक कुदेव, आरंभपरिग्रह के धारक भेषधारी कुगुरु, हिंसा के पोषक रागद्वेष को पुष्ट करनेवाले मिथ्यादृष्टियों के शास्त्र - इनकी वंदना, स्तवन, प्रशंसा करने का त्याग करो। क्रोध, मान, माया, लोभ - इनके निग्रह करने में बड़ा प्रयत्न करो। क्लेश देने के कारण अप्रिय वचन, गाली के वचन, अपमान के वचन, मद सहित वचन कभी नहीं कहो। इस प्रकार दूसरों को दुःख के कारण, अपने यश को नष्ट करनेवाले, धर्म को नष्ट करनेवाले मन-वचन-काय के प्रवर्तन का त्याग करो। इस प्रकार त्याग धर्म का संक्षेप में वर्णन किया । ८।
उत्तम आकिंचन्य धर्म अब उत्तम आकिंचन्य धर्म के स्वरूप का वर्णन करते हैं। अपने ज्ञानदर्शनमय स्वरूप के बिना अन्य किंचिन्मात्र भी मेरा नहीं है, मैं किसी अन्य द्रव्य का नहीं हूँ - ऐसे अनुभव को आकिंचन्य धर्म कहते हैं। हे आत्मन् ! अपने आत्मा को देह से भिन्न, ज्ञानमय, अनुपम , स्पर्श-रस-गंध-वर्ण रहित, अपने स्वाधीन ज्ञानानन्द सुख से परिपूर्ण, परम अतीन्द्रिय, भयरहित अनुभव करो।
यह देह है, वह मैं नहीं हूँ। देह तो रस, रक्त, हड्डी , मांस, चाममय, जड़, अचेतन है। मैं इस देह से अत्यन्त भिन्न हूँ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, आदि जाति-कुल देह के हैं, ये मेरे नहीं है। स्त्री, पुरुष, नपुंसक लिंग देह के हैं, मेरे नहीं है। यह गोरापना, सावलापना, राजापना, रंकपना, स्वामीपना, सेवकपना, पण्डितपना, मुर्खपना इत्यादि समस्त रचना कर्म के उदय जनित देह की है, मैं तो ज्ञायक हैं। ये देह का संबंध मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप तो अन्य द्रव्य की उपमा रहित अनुपम है।
ताता (गर्म), ठंडा, नरम, कठोर, लूखा, चिकना, हलका , भारी – यह आठ प्रकार का स्पर्श है, वह हमारा रूप नहीं हैं, पुद्गल का रूप है। ये खट्टा, मीठा, कडुआ, कषायला, चिरपरा-पाँच प्रकार का रस, सुगन्ध-दुर्गन्ध ये दो प्रकार की गन्ध , तथा काला, पीला, हरा, सफेद, लाल – ये पाँच प्रकार का वर्ण मेरा स्वरूप नहीं है, पुद्गल का स्वरूप है। __ मेरा स्वभाव तो सुख से परिपूर्ण है, परन्तु यहाँ कर्म के आधीन दुःखों से व्याप्त हो रहा हूँ। मेरा स्वरूप इंद्रिय रहित अतीन्द्रिय है। इंद्रियाँ पुद्गलमय कर्म द्वारा की हुई हैं। मैं समस्त भय रहित, अनिवाशी, अखण्ड, आदि-अन्त रहित, शुद्ध, ज्ञान स्वभाव हूँ; परन्तु अनादिकाल से जैसे स्वर्ण तथा पाषाण मिला हुआ है, उसी तरह क्षीर-नीर के समान कर्मों से अनादिकाल से मिला हुआ चला आ
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