Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार संसारी जीवों के अनादिकाल से मिथ्यादर्शन का उदय हो रहा है। उसके उदय से पर्यायबुद्धि हुआ जाति को, कुल को, विद्या को, ऐश्वर्य को, तप को, रूप को, धन को शरीर को, बल को अपना स्वरूप मानकर इनके गर्वरूप हो रहा है। उसे यह ज्ञान नहीं है कि ये जाति-कुलादि सब कर्म के उदय के आधीन पुद्गल के विकार हैं, विनाशीक हैं। मैं अविनाशी ज्ञान-स्वाभावी अमूर्तिक हूँ। ___मैंने अनादिकाल से अनेक जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य आदि प्राप्त कर-करके छोड़े हैं। मैं अब किस में अपनापन करूँ ? समस्त धन, यौवन, इंद्रिय जनित-ज्ञान आदि विनाशीक हैं, क्षण भंगुर है। इनका गर्व करना संसार में परिभ्रमण का कारण है।
इस संसार में स्वर्गलोक का महाऋद्धिधारी देव मरकर एक समय में एकेन्द्रिय में आकर उत्पन्न हो जाता है, तथा कूकर, शूकर, चांडाल आदि पर्याय को प्राप्त हो जाता है। नवनिधि - चौदह रत्नों का धारक चक्रवर्ती एक समय में मरकर सातवें नरक सातवें नरक का नारकी हो जाता है। बलभद्र, नारायण का ऐश्वर्य भी नष्ट हो गया, अन्य की क्या कहें ? जिनकी हजारों देव सेवा करते थे उनका पुण्यक्षय होने पर कोई एक मनुष्य पानी देनेवाला भी नहीं रहा, अन्य पुण्य रहित जीव क्यों मदोन्मत्त हो रहे हैं ?
जो उत्तम ज्ञान से जगत में प्रधान है, उत्तम तपश्चरण करने में उद्यमी है, उत्तम दानी हैं वे भी अपने आत्मा को बहुत छोटा मानते हैं, उनके मार्दव धर्म होता है।
ये विनयवानपना मदरहितपना समस्त धर्म का मूल है, समस्त सम्यग्ज्ञानादि गुणों का आधार है। यदि सम्यग्दर्शनादि गुणों का लाभ चाहते हो, अपना उज्ज्वल यश चाहते हो, बैर का अभाव चाहते हो तो मदों को त्याग कर कोमलपना ग्रहण करो। मद कष्ट हुए बिना विनय आदि गुण, वचन में मिष्टता, पूज्य पुरुषों का सत्कार, दान, सम्मान एक भी गुण प्राप्त नहीं होगा।
अभिमानी के बिना अपराध ही समस्त लोग बैरी हो जाती हैं। सभी लोग अभिमानी की निन्दा करते हैं, सभी लोग अभिमानी का पतन देखना चाहते हैं। स्वामी भी अभिमानी सेवक को छोड़ देता है। गुरुजन भी अभिमानी को विद्या देने में उत्साह रहित हो जाते हैं। अभिमानी का अपना सेवक भी पराङ्मुख हो जाता हे; मित्र, भाई, हितू, पड़ौसी भी इसका पतन चाहते हैं। पिता, गुरु, उपाध्याय को, पुत्र को, शिष्य को विनयवन्त देखकर ही आनंदित हो जाते हैं। अविनयी-अभिमानी पुत्र व शिष्य बड़े पुरुषों के मन को भी दुःखी करते हैं। पत्र का. शिष्य का. सेवक का तो ये धर्म हैं कि नया कार्य करना हो वह पिता. गुरु, स्वामी को बतलाकर करे, आज्ञा माँगकर करे; यदि आज्ञा मांगने का समय नहीं मिले तो अवसर देखकर शीघ्र ही बतला देवे। ये ही विनय है, ये ही भक्ति है।
जिनके मस्तक पर गुरु विराजमान हैं वे धन्य भाग्य हैं। विनयवन्त मदरहित जो पुरुष हैं वे अपने सभी कार्य गुरु को बतला देते हैं। वे धन्य हैं जो इस कलिकाल में मदरहित कोमल परिणामों द्वारा समस्त लोक में प्रवर्तते हैं। उत्तम पुरुष बालक में, वृद्ध में, रोगियों में, बुद्धिरहित
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