Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
[३०१ तू मूर्ख है, बैल है, ढोर है, रे मुर्ख, तू क्या समझेगा इत्यादि कर्कशा भाषा है। तू कुजाति है। नीच जाति का है, अधर्मी है, महापापी है, तू स्पर्श करने योग्य नहीं है, तेरा मुख देखने से बड़ा अनर्थ होता है, इत्यादि उद्वेग करने वाली कटुका भाषा है। तू आचार भ्रष्ट है, भ्रष्टाचारी है इत्यादि मर्म छेदनेवाली परुषा भाषा है। मैं तुझे मार डालूँगा, तेरी नाक काढूँगा, तुझे गर्म सलाख लगाऊँगा, तेरा मस्तक काट डालूँगा, तुझे खा जाऊँगा इत्यादि निष्ठुरा भाषा है। रे निर्लज्ज, वर्ण शंकर, तेरे जाति-कुल आचार का ठिकाना नहीं है, तेरा क्या तप है, त कशीली है, त हँसने योग्य है, त महानिंद्य है, त अभक्ष्य भक्षण करनेवाला है। तेरा नाम लेने से कुल लज्जित होता है इत्यादि परकोपनी भाषा है।
जिस वचन को सुनने से ही हडिडयों की ताकत नष्ट हो जाती है. सामर्थ्य नष्ट हो जाती है वह मध्यकृषा भाषा है। लोगों में अपने गुण प्रकट करना, दूसरों के दोष कहना, अपना कुल-जाति-रूप-बल-विज्ञान आदि का मद सहित वचन बोलना वह अभिमाननी भाषा है। शील का खण्डन करनेवाली तथा विद्वेष करनेवाली अनयंकरी भाषा है। वीर्य, शील, गुणादि को निर्मूल करनेवाली, असत्य दोष प्रकट करनेवाली, जगत में झूठा कलंक प्रकट करनेवाली छेदंकरी भाषा है। जिस वचन से अशुभ वेदना प्रकट हो जाय, ऐसी प्राणों का घात करनेवाली भूतवधकरी भाषा है। ये दश प्रकार के निंद्य अप्रिय वचन त्यागने योग्य हैं।
स्त्रियों के हावभाव, विलास, विभ्रम, क्रीड़ा, व्यभिचारादि की कथा, काम को जगानेवाली, ब्रह्मचर्य का नाश करनेवाली स्त्रियों की कथा; भोजनपान में राग करानेवाली भोजन की कथा; रौद्रभाव करानेवाली राजकथा; चोरों की कथा; मिथ्याद्दष्टि कुलिंगियों की कथा; धन उपार्जन करने की कथा; बैरी दुष्टों का तिरस्कार करने की कथा, तथा हिंसा को पुष्ट करनेवाली वेद, स्मृति, पुराण आदि कुशास्त्रों की कथा कहने योग्य नहीं है, सुनने योग्य नहीं है। पाप के आस्रव का कारण होने से विकथारूप अप्रिय भाषा त्यागने योग्य है।३।।
हे ज्ञानी जनों! चार प्रकार की असत्य वचनरूप निंद्य भाषा हँसी में , क्रोध में, मद से, छल से , लोभ से, भय से, द्वेष से कभी नहीं कहो। अपने तथा पर के हितरूप ही वचन खोलो। इस जीव को जैसा सुख हितरूप अर्थसहित मिष्ठवचन करता है, निराकुल करता है, आताप हरता है, वैसा सुखकारी आताप हरनेवाला चन्द्रमा, चन्द्रकांतमणि, जल, चन्दन, मोती आदि कोई पदार्थ नहीं है।
जहाँ अपने बोलने से धर्म की रक्षा होती हो, प्राणियों का उपकार होता हो, वहाँ बिना पूछे ही बोलना, तथा जहाँ आपका व अन्य का हित नहीं हो वहाँ मौन सहित ही रहना उचित है। सत्य बोलने से समस्त विद्या सिद्ध होती है, जहाँ विद्या देने वाला सत्यवादी हो तथा सीखने वाला भी सत्यवादी हो उसे समस्त विद्या सिद्ध होती है,कर्म की निर्जरा होती है। सत्य के प्रभाव से अग्नि, जल, विष, सिंह, सर्प, दुष्ट देव, मनुष्यादि बाधा नहीं कर सकते हैं।
सत्य के प्रभाव से देवता वश में हो जाते हैं, प्रीति-प्रतीति दृढ़ होती है। सत्यवादी माता के समान विश्वास योग्य है, गुरु के समान पूज्य होता है, मित्र के समान प्रिय होता है, उज्ज्वल यश
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