Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
[२६१
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
जिसके धूलिशाल आदि रत्नमयी कोट, मानस्तंभ , बावड़ी, जल की खाई, पुष्पवाड़ी, फिर रत्नमयी कोट, दरवाजे, नाट्यशाला, उपवन, वेदी, ध्वजाभूमि, फिर रत्नमयी कोट, कल्पवृक्षों का वन, रत्नमय स्तूप, महलों की भूमि, स्फटिकमणि का कोट, देवच्छद नाम का एक योजन का श्री मंडप, सर्व तरफ द्वादशसभा, उनसे सेवित रत्नमय तीन कटनीयुक्त गंधकुटी में सिंहासन के ऊपर चार अंगुर अंतरिक्ष भगवान अरहन्त विराजमान होते हैं। उनके अनन्तज्ञान , अनन्तदर्शन, अनन्तसुख , अनन्तवीर्यमयी अंतरंग विभूति की महिमा कहने को चार ज्ञान के धारक गणधर समर्थ नहीं है, अन्य तो कौन कह सकता है ? ___ समोशरण की विभूति ही वचन के अगोचर है। गन्धकुटी तीसरी कटनी के ऊपर है। वहाँ देवों के बत्तीस युगल, मुकुट, कुण्डल, हार, कड़े, भुजबन्ध आदि सभी आभूषण पहिने हुये चौंसठ चमर ढार रहे हैं, अद्भुत कांति के धारक तीन छत्र जिनकी कांति से सूर्य चंद्रमा भी मंद ज्योति वाले दिखाई देते हैं, उनके शरीर का प्रभामंडल चक्र वृद्धिंगत हो रहा है, जिससे समोशरण में रात्रि-दिन का भेद ही नहीं रहता है, सदा दिन ही सा रहता है।
तीनलोक में जैसी सुगंध और कहीं नहीं होती ऐसी महा सुगंध सहित गंधकुटी के ऊपर, देवों द्वारा बनाये गये अशोक वृक्ष को देखते ही सभी लोगों का शोक नष्ट हो जाता है, आकाश से कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा होती है। आकाश में साढ़े बारह करोड़ जाति के बाजों की ऐसी मधुर ध्वनि होती है, जिसे सुनने मात्र से क्षुधा, तृषा आदि सभी रोग वेदना नष्ट हो जाते हैं। रत्नजड़ित सिंहासन सूर्य की कांति को जीतता सा लगता है।
जिनेन्द्र की दिव्यध्वनि की अद्भुत महिमा है। त्रिलोकवर्ती जीवों का परम उपकार करनेवाली है, मोहांधकार का नाश करती है, सभी जीव अपनी-अपनी भाषा में शब्द-अर्थ समझ लेते हैं, सभी जीवों को संशय नहीं रह जाता है, स्वर्ग-मोक्ष के मार्ग को प्रकट करती है। दिव्यध्वनि की महिमा वचन द्वारा गणधर, इंद्रादि कोई कहने में समर्थ नहीं है। जिन के समोशरण में सिंह-हाथी, व्याघ्र-गाय, बिल्ली-हंस इत्यादि जाति विरोधी जीव अपनी बैर बुद्धि छोड़कर परस्पर मित्र हो जाते हैं।
वीतरागता की अद्भुत महिमा है - असंख्यात देव जिनेन्द्रदेव की जय-जयकार करते हैं, उनकी निकटता पाकर के देवों द्वारा रचे कलश, झारी, दर्पण, ध्वजा, ठोना, छत्र, चमर, बीजना-ये अष्ट अचेतन द्रव्य भी लोक में मंगलपने को प्राप्त हो जाते हैं।
केवलज्ञान होने के पश्चात् दश अतिशय प्रकट होते हैं -चारों तरफ सौ-सौ योजन सुभिक्षता, आकाश में गमन , भूमि का स्पर्श नहीं होना , उनसे किसी भी प्राणी का घात नहीं होना, उपसर्ग का अभाव, चार मुख दिखना, समस्त विद्याओं का ईश्वरपना, छाया रहितपना, नेत्रों के पलक नहीं झपकना, नख-केश नहीं बढ़ना। ये दश अतिशय घातिया कर्मो का नाश होने से स्वयं प्रकट हो जाते हैं।
तीर्थंकर प्रकृत्ति के प्रभाव से देवों द्वारा किये चौदह अतिशय होते हैं - अर्द्ध मागधीभाषा, समस्त जन समूह में मैत्री भाव, सभी ऋतुओं के फल-फूल-पत्तों सहित वृक्षों का हो जाना, पृथ्वी
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com