Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
का तृणकंटक-रज रहित दर्पण समान रत्नमयी हो जाना, शीतल-मंद-सुगंध पवन का चलना, सभी जीवों के आनंद प्रकट हो जाना, अनुकूल पवन चलना, सुगंधित जल की वृष्टि से भूमि का धूल रहित हो जाना, जहाँ-जहाँ चरण रखते जाते हैं वहाँ-वहाँ सात आगे, सात पीछे, सात दायें, सात बायें तथा एक बीच में ऐसे पंद्रह-पंद्रह कमलों की पंद्रह पंक्तियों में कुल दो सौ पच्चीस कमलों की देव रचना करते जाते हैं, आकाश ऊपर निर्मल हो जाता है, दिशायें चारों तरफ निर्मल हो जाती है, चारों निकाय के देव जय-जयकार शब्द बोलते हैं, धर्मचक्र एकहजार किरणों की आरां सहित अपने प्रकाश से सूर्य मंडल का भी तिरस्कार करता हुआ आगे-आगे चलता जाता है, व अष्ट मंगल द्रव्य। ये चौदह देवकृत अतिशय प्रकट होते हैं।
क्षुधा, तृषा, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, विस्मय, राग, द्वेष, मोह, अरति, चिंता, स्वेद, खेद, मद, निद्रा - इन अठारह दोष रहित अरहंत की वंदना, स्तवन, ध्यान करो। सुख को प्राप्त करानेवाले अरहंत हैं, उनका स्तवन करना चाहिये। यह अरहन्त भक्ति संसार समुद्र से तारने वाली है, उसका निरन्तर चिंतवन करो। अर्हन्त के गुणों की अपेक्षा तो अनंत नाम हैं, तथा भक्ति से भरे इंद्र ने भगवान का एक हजार आठ नामों द्वारा स्तवन किया है। जो अल्प सामर्थ्य के धारी हैं वे भी अपनी शक्ति प्रमाण पूजन, वंदन, स्तवन, नमस्कार, ध्यान करें।
अरहन्त भक्ति संसार समुद्र से तारनेवाली ही है। सम्यग्दर्शन में तथा अरहन्त भक्ति में नाम भेद है, अर्थ भेद नहीं हैं। अरहन्त भक्ति नरकादि गति को हरनेवाली है। जो इस भक्ति की पूजन, स्तवन करके अर्घ उतारण करते हैं वे देवों का सुख भोगकर, फिर मनुष्य का सुख भोगकर अविनाशी सुख के धारी अक्षय अविनाशी सिद्धों के जैसे सुख को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार अरहन्त भक्ति नाम की दशवी भावना का वर्णन किया ।१०।
आचार्य भक्ति भावना अब आचार्य भक्ति नाम की ग्यारहवीं भावना का वर्णन करते हैं, वही गुरुभक्ति है। वे धन्य भाग्य हैं। जिन्हें वीतराग गुरुओं के गुणों में अनुराग होता है। धन्य पुरुषों के मस्तक के ऊपर गुरुओं की आज्ञा प्रवर्तती है। आचार्य तो अनेक गुणों की खान हैं, श्रेष्ठ तप के धारक हैं। इसलिये अपने मन में इनके गुणों को स्मरण करके पूजिये, अर्घ उतारण कीजिये, उनके आगे पुष्पांजलि क्षेपिये, जिससे मुझे ऐसे गुरुओं के चरणों की शरण ही प्राप्त होवे।
आचार्य का स्वरूप : कैसे होते हैं आचार्य ? जिनका अनशन आदि बारह प्रकार के उज्ज्वल तपों में निरन्तर उद्यम है, छह आवश्यक क्रियाओं में सावधान हैं, पंचाचार के धारक हैं, दशलक्षण धर्मरूप जिनकी परिणति है, मन-वचन-काय की गुप्ति सहित हैं। ऐसे छत्तीस गुणों के धारी आचार्य होते हैं। सम्यग्दर्शनाचार को निर्दोष धारण करते हैं। सम्यग्ज्ञान की शुद्धता से युक्त हैं। तेरह प्रकार के चारित्र की शुद्धता के धारक हैं। तपश्चरण में उत्साह युक्त हैं, तथा अपनी शक्ति को नहीं छिपाते हुए बाईस परीषहों को जीतने में समर्थ, ऐसे निरन्तर पञ्च आचार के धारक हैं।
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