Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार की आराधना छोड़कर जिनेन्द्र की आराधना करो। बहुत समय तक संसारी, रागी, द्वेषी, मोही जीवों की आराधना करके घोर पाप कर्म का बंध करके संसार में परिभ्रमण ही किया है। यदि वीतराग सर्वज्ञदेव की आराधना की होती तो कर्म के बंध का नाश करके स्वाधीन मोक्षरूप आत्मा को प्राप्त कर लिया होता। इसलिये संसार के सभी दुःखों का नाश करनेवाला जिनेन्द्र का पूजन ही करो।
यहाँ कोई प्रश्न करता है - भगवान अरहन्त तो आयु पूर्ण करके लोक के अग्रभाग में मोक्षस्थान में हैं, धातु-पाषाण के स्थापनारूप प्रतिबिम्बों में तो आते नहीं है, अपनी पूजनस्तवन भी चाहते नहीं है, तथा अपने अनंतज्ञान-अनंतसुख में लीन बैठे हैं। अपनी पूजनस्तवन तो जो अभिमान-कषाय से दुःखी, अपनी बड़ाई का इच्छुक , संसारी-रागद्वेष सहित हो, वह चाहता है और वही स्तवन करने से सतुष्ट होता है। भगवान् परमेष्ठी वीतराग अनंत चतुष्टय स्वरूप में लीन हैं, उन्हें पूजा की चाह नहीं है, वे धातु-पाषाण के प्रतिबिंब में आते नहीं है, किसी का उपकार करते नहीं हैं, किसी का अपकार भी करते नहीं है, पूजन-स्तवन करनेवालों से प्रसन्न होते नहीं हैं, निंदा करनेवालों से द्वेष करते नहीं हैं। फिर किस प्रयोजन से अरहन्त जिनेन्द्रदेव की पूजन-स्तवन करना चाहिये ?
उसे उत्तर होते हैं - भगवान् वीतराग तो पूजन स्तवन चाहते नहीं हैं, परन्तु गृहस्थ के परिणाम शुद्ध आत्म स्वरूप की भावना में रुकते नहीं हैं, साम्यभाव रूप रहते नहीं हैं, बिना अवलंबन के मन रहता नहीं है; इसलिये परमात्मा की भावना का आलम्बन लेकर, वीतराग स्वरूप के ध्यान के लिये, शुद्धात्मा के अबलंबन के लिये, विषय-कषाय के आरंभ का अवलंबन छोड़कर, साक्षात् परमात्म स्वरूप का धातु-पाषाणमय प्रतिबिंबों में संकल्प करके परमात्मा का ध्यान, स्तवन, पूजन करते हैं।
पूजन के समय में विषय-कषायों के संकल्पों का अभाव होने से, दुर्ध्यान के छूटने से, अपने परिणामों की विशुद्धता के प्रभाव से , अशुभ कर्मों का रस सूख जाता है, अशुभ कर्मों की स्थिति घट जाती है, अनुभाग घट जाता है, वही पाप कर्मों का रस सूख जाता है, अशुभ कर्मों की स्थिति घट जाती हैं, अनुभाग घट जाता है, वही पाप कर्मों का अभाव है। परिणामों की विशुद्धता के प्रभाव से शुभ प्रकृतियों में रस बढ़ जाता है, शुभ आयु के सिवाय समस्त कर्मों की प्रकृत्तियों की स्थिति घट जाती है। इसी कारण से वीतराग के स्तवन, पूजन, ध्यान करने के प्रभाव से पापकर्मों का नाश होता है, सातिशय पुण्य कर्म का उपार्जन होता है।
यह भी निश्चय करो - पुण्य-पाप का बंध का कारण तो अपना भाव है। बाह्य में जैसा अवलम्बन मिलता है वैसा अपना भाव होता है। यद्यपि भगवान अरहन्त धातु-पाषाण के प्रतिबिंबों में आते नहीं है, तथा भगवान वीतराग किसी का उपकार-अपकार करते नहीं हैं, तथापि वीतराग भगवान का ध्यान-पूजन-नाम अपने शुभ परिणाम करने को, रागद्वेष के नाश करने को बाह्य कारण हैं, उन परिणामों से जीव का परम उपकार होता है। ___ जैसे काष्ठ, पाषाण, चित्राम के स्त्रियों के रूप जीवों को राग के कारण हैं; अचेतन स्वर्ण, मणि, माणिक, चाँदी, महल, वन, बाग, नगर, ग्राम, पत्थर, कीचड़, श्मशान आदि का देखना, सुनना रागद्वेष
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