Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार शीलवन्त को इंद्र भी नमस्कार करता है। शीलवान पुरुष रत्नत्रयरूप धन लेकर कामादि लुटेरों के भय से रहित निर्वाणपुरी की ओर गमन करते हैं। शील से भूषित रूपरहित भी हो, मलिन हो, रोगादि सहित हो तो भी अपनी संगति से सभी सभाजनों को मोहित करता है। शीलरहित व्यभिचारी पुरुष में कामदेव समान रूप हो तो भी लोग उस पर थू-थू कार ही करते हैं। इसका नाम ही कुशील है।
शील नाम स्वभाव का है। कामी मनुष्य का शील जो आत्मा का स्वभाव है वह खोटा हो जाता है इसलिये इसको कुशील कहते हैं। कामी मनुष्य धर्म से, आत्मा के स्वभाव से, व्यवहार की शुद्धता से रहित हो जाता है इसलिये इसे व्यभिचारी कहते हैं। इसके समान जगत में अन्य खोटा कर्म नहीं है इसलिये काम को कुकर्म कहते हैं। कामसेवन के समय में मनुष्य पशु के समान हो जाता है। इसलिये इसे पशुकर्म कहते हैं। ब्रह्म अर्थात् आत्मा का ज्ञान-दर्शन आदि स्वभाव का इससे घात होता है अतः इसे अब्रह्म कहते हैं। कुशीली की संगति से कुशीली हो जाते हैं। जिसने शील की रक्षा की उसने शान्ति, दीक्षा, तप, व्रत, संयम सब पाल लिया।
अपने स्वभाव से चलायमान नहीं होना, उसे मुनीश्वर शील कहते हैं। शीलगुण सभी गुणों में बड़ा है। शील सहित पुरुष का थोड़ा भी व्रत, तप प्रचुर फल देता है तथा शील बिना बहुत भी व्रत-तप हो वह निष्फल है। इस प्रकार जानकर अपने आत्मा में शील की शुद्धता के लिये नित्य शील ही को पूजो। यह शीलव्रत मनुष्य जन्म में ही है, अन्यगति में नहीं है। अत: जन्म सफल करना चाहते हो तो शील की ही उज्ज्वलता करो। इस प्रकार शीलव्रतेष्वनतीचार नाम की तीसरी भावना का वर्णन किया ।३।
अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना अभीक्ष्य ज्ञानोपयोग नाम की चौथी भावना का वर्णन करते हैं। हे आत्मन् ! यह मनुष्य जन्म पाकर निरन्तर ज्ञानाभ्यास ही करो, ज्ञान का अभ्यास किये बिना एक क्षण भी व्यतीत नहीं करो। ज्ञान के अभ्यास बिना मनुष्य पशु समान है। अतः योग्यकाल में जिनागम का पाठ करो, जब समभाव हो तब ध्यान करो, शास्त्रों के अर्थ का चिंतन करो, बहुत ज्ञानी गुरुजनों में नम्रतावंदना-विनयादि करो, धर्म सुनने के इच्छुक को धर्म का उपदेश करो। इसी को अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग कहते हैं। इस अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग नाम के गुण का अष्ट द्रव्यों से पूजन करके इसका अर्घ उतारन करो तथा फूलों को दोनों हाथों की अंजुलि से इसके आगे क्षेपण करो।
ज्ञानोपयोग चैतन्य की परिणिति है। अतः प्रतिक्षण निरन्तर चैतन्य की ही भावना करना। अनादिकाल से काम, क्रोध, अभिमान, लोभादि मेरे साथ में लगे हैं, अनादि से ही इनका संस्कार मेरे चैतन्य रूप में घुलमिल रहा है। अब ऐसी भावना हो - भगवान के परमागम के सेवन के प्रभाव से मेरा आत्मा रागद्वेष आदि से भिन्न अपने ज्ञायक स्वभाव में ही ठहर जाय, रागादि के वशीभूत नहीं हो, वही मेरे आत्मा का हित है।
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