Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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का द्रव्य है, पीलापन आदि उसके गुण हैं, कुंडल आदि उसकी पर्याय है - वह सब स्वर्ण ही है। इसलिये स्वर्ण अन्य वस्तु का नहीं, स्वर्ण है वह स्वर्ण का ही है। अन्य वस्तु का अन्य कोई हुआ नहीं है नहीं ,होगा नहीं। अपना स्वरूप है वह अपना ही है। वैसे ही - आत्मा है वह आत्मा का ही है, आत्मा का अन्य कोई द्रव्य नहीं है। अब जो देह को अपनी आत्मा मानता है - मैं गोरा, मै सांवला, मैं राजा, मैं रंक, मैं स्वामी, मैं सेवक, मैं ब्राह्मण, मैं क्षत्रिय, मैं वैश्य, मैं शूद्र , मैं वृद्ध , मैं बालक, मैं बलवान, मैं निर्बल , मैं मनुष्य, मैं तिर्यंच इत्यादि कर्मकृत विनाशीक परद्रव्य जनित पर्याय में आत्मबुद्धि करना वह मिथ्यात्व परिग्रह है।
मिथ्यादर्शन से ही मेरा घर, मेरा पत्र, मेरा राज्य, मैं नीच, मैं उच्च इत्यादि मानकर सभी पर पदार्थों में आत्मबुद्धि करता है। पुदगल के नाश को अपना नाश मानता है, इसके बढ़ने से अपना बढ़ना, इसके घटने से अपना घटना मानकर पर्याय में आत्मबुद्धि करके अनादिकाल से अपना स्वरूप भूल रहा है। समस्त परिग्रह में आत्मबुद्धि का मूल मिथ्यात्व नाम का परिग्रह ही है। जिसके मिथ्याज्ञान नहीं है वह परद्रव्यों में 'हमारा' इस प्रकार कहता हुआ भी परद्रव्यों में कभी अपनापना नहीं मानता है।
वेद के उदय से स्त्री पुरुषों में जो कामसेवन के भाव होते हैं। इस काम में तन्मय होकर काम के भाव को आत्मभाव मानना वह वेद परिग्रह है। काम तो वीर्य आदि का प्रेरित किया हुआ देह का विकार है, उसे अपना स्वरूप जानना वह वेद परिग्रह है।
धन, ऐश्वर्य , पुत्र, स्त्री, आभरणादि परद्रव्यों में आसक्ति का भाव होना वह राग परिग्रह है। अन्य का वैभव, परिवार, ऐश्वर्य, पाण्डित्य आदि देखकर बैर भाव करना वह द्वेष परिग्रह है। हास्य में आसक्ति का भाव होना वह हास्य परिग्रह है। अपना मरण होने से, मित्रों का तथा परिग्रह आदि का वियोग होने से निरंतर भयवान रहना वह भय परिग्रह है।
पाँच इंद्रियों द्वारा वांछित भोग-उपभोग सामग्री को भोगने में लीन होना वह रति परिग्रह है। अनिष्ट वस्तु का संयोग होने से परिणामों में संक्लेशभाव होना वह अरति परिग्रह है। इष्ट स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, जीविका आदि का वियोग होने से उनके संयोग की वांछा करके संक्लेश भाव होना वह शोक परिग्रह है। धृणायुक्त पुद्गलों के देखने से, श्रवण करने से, चितवन करने से, स्पर्श करने से, परिणामो में ग्लानि उत्पन्न हो जाना वह जुगुप्सा परिग्रह है। अथवा अन्य का पुण्य का उदय देखकर अपने भाव क्लेशरूप हो जाना, सुहावे नहीं वह जुगुप्सा परिग्रह है।
परिणामों में रोष करके तप्तायमान हो जाना वह क्रोध परिग्रह है। उच्च जाति, धनऐश्वर्य, रूप, बल, तप, ज्ञान नहीं, ऋद्धि-बुद्धि इनसे अपने को बड़ा जानकर मद करना, तथा दूसरे को छोटा जानकर निरादर करना, कठोर परिणाम रखना वह मान परिग्रह है। अनेक छल-कपट आदि द्वारा वक्र परिणाम रखना वह माया परिग्रह है। परद्रव्यों के ग्रहण करने में संग्रह करने में तृष्णा होना वह लोभ परिग्रह है।
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