Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार जो धनवान हैं यदि वे अपना धन सफल करना चाहते हैं, तो पढ़नेवालों को आजीविका आदि देकर स्थिर करो; पुस्तकें लिखवाकर विद्या पढ़नेवालों को दो; पुस्तकों को शुद्ध करो-कराओ, पढ़ने-पढ़ाने के लिये स्थान हो, निरन्तर पढ़ने-सुनने में ही मनुष्य जन्म का समय व्यतीत करो। यह अवसर बीतता चला जा रहा है। जब तक आयु, काय, इंद्रियाँ, बुद्धि, बल ठीक हैं तब तक मनुष्य जन्म की एक घड़ी भी सम्यग्ज्ञान के बिना नहीं खोओ। ज्ञानरूप धन परलोक में भी साथ जायेगा।
इस अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की महिमा का कोटि जिह्वा द्वारा भी वर्णन नहीं किया जा सकता है। इसलिये ज्ञानोपयोग की परम शरण के लिये जो गृहस्थ धन सहित हो वह भी भावना भाये, अर्घ उतारण करे, तथा जो गृह के त्यागी हों वे भी निरन्तर भावना भावें। इस प्रकार यह अभीक्ष्णज्ञानोपयोग नाम की चौथी भावना का वर्णन किया ।।।
संवेग भावना __ अब पाँचवीं संवेग भावना का वर्णन करते हैं। संसार, शरीर, भोगों से विरक्त होकर धर्म में अनुराग करना वह संवेग हैं; तथा धर्म व धर्म के फल में अनुराग करना वह संवेग है।
पुत्र का स्वरूप : यहाँ संसार में जिस पुत्र से राग करता है, वह जन्म लेते ही तो स्त्री का यौवन सौंदर्य आदि बिगाड़ देता है। जन्म लेने के बाद बड़ी आकुलता करते हुए, बड़े कष्ट आदि सहते हुए, धन खर्च करके पुत्र को बड़ा करते हैं; तथा रोगादि से बचाते हुए, क्षण-क्षण बड़ी सावधानीपूर्वक महामोही-महारागी होकर, ग्लानिरहित होकर, बड़े कष्ट सहकर बड़ा करते हैं। वह पुत्र बड़ा होकर अच्छा भोजन, अच्छा वस्त्र , आभरण, अच्छा स्थान हठ पूर्वक ग्रहण कर लेता है। यदि वह मूर्ख हुआ , व्यसनी हो गया , तीव्र कषायी हुआ तो रात-दिन परिणामों में जो क्लेश होता है वह कहा नहीं जा सकता है।
पुत्र के मोह से परिग्रह में बड़ी मूर्छा बढ़ती है। यदि वह समर्थ हो जाये किन्तु अपनी आज्ञा में नहीं चले तो परिणाम बहुत आर्तरूप हो जाते हैं। यदि अपने जीवित रहते हुये युवा पुत्र का मरण हो जाय तो अपनी मृत्यु पर्यन्त महादुखी रहता है, कष्ट नहीं मिटता है। जबतक पिता को अपना काम करनेवाला समझता है तब तक पिता से प्रेम करता है, जब पिता काम करने में असमर्थ हो जाता है तो उनसे प्रेम नहीं करता है, यदि पिता धनरहित हो तो उनका निरादर करता है। इसलिये पुत्र का स्वरूप समझकर पुत्र से राग छोड़कर परम धर्म से राग करो। पुत्र के लिये अन्याय से धन परिग्रह आदि को ग्रहण करने का परित्याग करो।
स्त्री का स्वरूप : स्त्री भी मोह नाम के ठग की बड़ी फांसी है, ममता उपजानेवाली है, तृष्णा को बढ़ाने वाली है। स्त्री में तीव्रराग होने से वह धर्म में प्रवृत्ति का नाश करनेवाली है, लोभ को बहुत अधिक बढ़ानेवाली है, परिग्रह में मूर्छा बढ़ानेवाली है, ध्यान-स्वाध्याय में विध्न करनेवाली है, विषयों में अंधा करनेवाली है, क्रोधादि चारों कषायों में तीव्रता करानेवाली है, संयम का घात करनेवाली है, झगड़े की जड़ है, दुर्ध्यान का स्थान है, मरण बिगाड़नेवाली है इत्यादि दोषों का मूल कारण जानकर स्त्री के प्रति रागभाव छोड़कर वीतराग धर्म से अपना राग बढ़ाओ।
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