Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
View full book text
________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२१६]
१०. आत्मा में विकार नहीं है, वह तो शुद्धोपयोग स्वभावी हैं, अतः अलिंगग्रहण है। ११. आत्मा कर्मों को ग्रहण नहीं करता हैं, अत: अलिंगग्रहण है। १२. आत्मा विषयों को ग्रहण नहीं करता हैं, अतः अलिंगग्रहण है। १३. आत्मा के स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद, मन, तथा इंद्रियों का अभाव हैं, अतः अलिंगग्रहण है। १४. आत्मा लौकिक साधन मात्र नहीं हैं, अतः अलिंगग्रहण है। १५. आत्मा लोकव्याप्तिवाला नहीं है, अतः अलिंगग्रहण है। १६. आत्मा के स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदों का ग्रहण नहीं, अतः अलिंगग्रहण है। १७. आत्मा के बहिरंग यतिलिंगों का अभाव हैं, अतः अलिंगग्रहण है। १८. आत्मा गुण विशेष से आलिंगित न होनेवाला शुद्ध द्रव्य हैं, अतः अलिंगग्रहण है। १९. आत्मा पर्याय विशेष से आलिंगित न होनेवाला शुद्ध द्रव्य हैं, अतः अलिंगग्रहण है। २०. आत्मा द्रव्य से नहीं आलिंगित ऐसी शुद्ध पर्याय हैं, अतः अलिंगग्रहण है।
- प्रवचनसार टीका : गाथा १७२
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com