Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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हैं तथा बदला लेते हैं । तिर्यंचों के ऊपर भी जो जाठी, पत्थर, शस्त्र, चाबुक आदि चलाता है उसका बैर-बदला तिर्यंच भी नहीं छोड़ते हैं। हाथी, घोड़ा, सर्प, ऊँट बहुत दिन के बाद भी बैर धारणकर बदला लेते हैं, मार डालते हैं। दूसरों को मारनेवाला जगत में निंद्य होता है, पापी कहलाता है, सभी से प्रतीति समाप्त हो जाती है।
यह जिसे मारता है, वे भी इसको मारते हैं; राजा का तीव्र दण्ड मिलता है; हाथ, पैर, नाक, छेद दिये जाते हैं; राजा सर्वस्व हरण कर लेता है। महा-अपयश, गर्दभ-आरोहण आदि तीव्र दण्ड यहीं पर भोगकर बहुत काल तक नरकादि कुगतियों में अनेक प्रकार से ताड़न, मारन, छेदन, भेदन, शूली, वैतरणी स्नान आदि असंख्यात दुःख भोगकर तिर्यंचों में, मनुष्यों में तीव्र रोग, दारिद्र, अपमान आदि भोगता हुआ असंख्यात अनन्त भवों में दुःखों का पात्र होता है।
जो अन्य जीवों का घात तो नहीं करते हैं, प्राण तो नहीं लेते हैं, परन्तु अभिमान से क्रोध पूर्वक अपने शरीर के बल से अन्य मनुष्यों, तिर्यंचों को, बालक को, स्त्री को लात, घमूका, चाँटा आदि से मारते हैं, तथा लाठी, चाबुक, वेतों से मारते हैं, त्रास देते हैं, वे भी इस लोक में राक्षसों के समान भयंकर कष्ट पानेवाले महान अपयश के भागी होकर दुर्गति पात्र होते हैं। जो निर्दय परिणामी होकर कषाय के वश होकर विकलत्रय जीवों का घोर आरम्भ आदि करके घात करते हैं; बिना प्रयोजन ही वनस्पति का छेदन, पृथ्वी - जल - अग्नि - वायु काय के जीवों की अज्ञान भाव से तथा प्रमाद से विराधना करते हैं वे इस लोक में ही ज्वर, सन्निपात आमवात, पक्षाघात, संग्रहणी, अतिसार, वात, पित्त, कफ, खांसी, कोढ़, खाज, पांव फोड़ा, बालतोड़, बालतोड़, विष कण्टक आदि रोगों के घोर दुःख भोगकर अनेक दुर्गतियों में रोग, दरिद्रता, इष्ट वियोग आदि घोर दुःखों के पात्र होते हैं। इसलियें हिंसा से इस लोक व परलोक में घोर दुःखरूप फल का होना जानकर सर्व प्रकार से हिंसा का त्याग करना ही श्रेष्ठ है।
जो जीवों पर दया करके सभी जीवों को अभयदान देता है, अपने परिणामों में जीवमात्र की विराधना नहीं चाहता है, यत्नाचाररूप प्रवर्तता है, प्रमाद छोड़कर अहिंसा धर्म को नहीं भूलता है उसकी महिमा यहाँ ही देव करते हैं, मनुष्य करते हैं, पूज्य हो जाता है, सभी पापों से रहित होकर स्वर्गलोक में महर्द्धिक देवपना पाकर मनुष्यलोक में विदेह आदि उत्तम क्षेत्रों में महाप्रभाव का धारक होकर निर्वाण गमन करता है।
असत्य वचन त्याग की प्रेरणा : अब असत्यवचन का स्वरूप केवल दोषरूप ही है, वह प्रकट विचारकर देखो । असत्यवादी की कोई प्रतीति नहीं करता है। माता, पिता, पुत्र, मित्र, स्त्री को भी उसकी प्रतीति नहीं होती है, उसपर विश्वास नहीं आता है, तब किसी अन्य को उस पर कैसे विश्वास होगा ? जगत में जितना भी व्यवहार है वह सब वचन के द्वारा ही है । जिसने अपना वचन बिगाड़ उसने अपना सभी व्यवहार बिगाड़ लिया । धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थ वचन द्वारा ही चलते हैं। जिस का वचन ही निंद्य हुआ उसके चारों पुरुषार्थ निंद्य हो जाते हैं।
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