Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
२३२]
जनित सुख-दुःख में साम्यभाव के धारक, जीवन-मरण लाभ-अलाभ स्तवन-निन्दा में रागद्वेष रहित, उपसर्ग-परिषहों, के सहने में अकम्प धैर्य के धारक, परम निर्ग्रन्थ गुरु ही वन्दन स्तवन करने योग्य हैं। अन्य आरम्भी, कषायी, विषयानुरागी, कुगुरु कभी भी स्तवन वन्दन करने योग्य नहीं हैं। ___जीव दया ही धर्म है, हिंसा कभी भी धर्म नहीं है। यदि कभी सूर्य का उदय-पश्चिम दिशा में हो जाय, अग्नि शीतल हो जाय, सर्प के मुख में अमृत हो जाय, मेरु पर्वत अपने स्थान से हट जाय, पृथ्वी उलट-पुलट हो जाय, तो भी हिंसा में कभी धर्म नहीं होगा। ऐसा दृढ़ श्रद्धान सम्यग्दृष्टि को होता है।
अपने आत्मा के अनुभवन में, सर्वज्ञ वीतरागरूप आप्त के स्वरूप में, निर्ग्रन्थ विषय-कषाय रहित गुरु में, अनेकान्त स्वरूप आगम में, दयारूप धर्म में शंका का अभाव होना वह निःशंकित अंग है। सम्यग्दृष्टि को इनमें कभी शंका नहीं होती है, अतः उसके निःशंकित अंग होता ही है।
नि:कांक्षित गुण : सम्यग्दृष्टि धर्म सेवन करके विषयों की वांछा नहीं करता है। सम्यग्दृष्टि को इंद्र अहमिन्द्रलोक के विषय भी महान वेदनारूप, विनाशीक, पाप के बीजरूप ही दिखाई पड़ते हैं, तथा धर्म का फल अनन्त, अविनाशी, स्वाधीन सुख सहित मोक्ष दिखाई देता है। जिस प्रकार जौहरी बहुमूल्य रत्न को छोड़कर काँच के टुकड़े को ग्रहण नहीं करता है; उसी प्रकार जिसे सच्चा, आत्मीक , अविनाशी, बाधारहित सुख दिखाई पड़ गया ( अनुभव में आ गया) वह असत्य, बाधा सहित, विषयों के सुख की कैसे वांछा करेगा? अतः सम्यग्दृष्टि वाञ्छा रहित ही होता है।
अव्रती सम्यग्दृष्टि के वर्तमान काल में आजीविकादि में, स्थान आदि परिग्रह में, वेदना के अभाव की जो वाञ्छा होती है वह वर्तमान काल की वेदना सहने की असमर्थता से वेदना का इलाज मात्र की चाह है। जैसे रोगी कडुवी औषधि से बहुत विरक्त होता है, तो भी जब वेदना का दुःख नहीं सहा जाता है तब वह वमन-विरेचन आदि की कारण कडुवी औषधि भी ग्रहण करता है, दुर्गन्धित तेलादि भी लगाता है, किन्तु अंतरंग में औषधि से कुछ भी अनुराग नहीं रखता है; वैसे ही सम्यग्दृष्टि निर्वांछक है तो भी वर्तमान का दुःख दूर करने के लिये योग्य तथा न्याय के विषयों की वाञ्छा करता है। जिनके प्रत्याख्यानावरण अप्रत्याख्यानावरण कषायों का अभाव हो गया है वे मुनिराज अपने शरीर के सौ टुकड़े हो जाय तो भी विषयों की वाञ्छा नहीं करते हैं, अतः सम्यग्दृष्टि के निःकांक्षित गुण होता ही है।
निर्विचिकित्सा गुण : सम्यग्दृष्टि के अशुभ कर्म के उदय से प्राप्त हुई अशुभ सामग्री में ग्लानि नहीं करता है, परिणाम नहीं बिगाड़ता है। वह तो विचारता है कि मैंने पूर्व में जैसे कर्म बांधा था उसी के अनुसार भोजन, पानी, स्त्री, पुत्र, दारिद्र संपदा, आपदा प्राप्त हुई है। अन्य किसी को रोगी दरिद्री, हीन, नीच, मलीन देखकर परिणाम नहीं बिगाड़ता है, पाप की सामग्री जानकर कलुषता नहीं करता है। मलमूत्र, कीचड़ आदि द्रव्य को देखकर, भंयकर श्मशान वन आदि क्षेत्र को देखकर, भयरूप दुःखदायी काल को देखकर, दुष्टपना, कडुआपना इत्यादि वस्तु के स्वभाव को देखकर अपने परिणामों में क्लेशित नहीं होना वह निर्विचिकित्सित अंग सम्यग्दृष्टि के होता ही है।
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