Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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पापों में
अमूढ़दृष्टि गुण : खोटे शास्त्रों से, व्यन्तर आदि देवकृत विक्रिया से, मणि-मंत्र-औषधि आदि के प्रभाव से, अनेक वस्तुओं का विपरीत स्वभाव देखकर सच्चे धर्म से चलायमान नहीं होना वह सम्यग्दर्शन का अमूढ़दृष्टि गुण हैं जो सम्यग्दृष्टि के होता ही है।
उपगूहन गुण : सम्यग्दृष्टि अन्य जीवों के अज्ञान से अशक्तता से लगे हुए दोष देखकर उन्हें ढाँकता है। ये संसारी जीव ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय कर्म के वश होकर अपना स्वभाव भूल रहे हैं। कर्म के आधीन होकर असत्य वचन, परधन हरण, कुशील 3 प्रवृत्ति करते हैं। जो पापों से दूर रहते हैं वे धन्य हैं। यदि किसी प्रसिद्ध धर्मात्मा पुरुष से पाप के उदय में कोई अपराध हो जाय तो उसे जानकर ऐसा विचार करता है कि - यदि यह दोष प्रकट हो जायेगा तो अन्य धर्मात्माओं तथा जैनधर्म की बड़ी निन्दा होगी, ऐसा जानकर उसके दोष को आच्छादित करता है। अपने गुणों की प्रशंसा का इच्छुक नहीं होता है। ऐसा उपग्रहन गुण सम्यग्दृष्टि को होता ही है।
स्थितिकरण गुण : यदि किसी धर्मात्मा पुरुष के परिणाम कभी रोग की वेदना से धर्म से विचलित हो जाँय; दारिद्र से, उपसर्ग आने से, परिषह नहीं सहा जाने से, असहायता से , आहार पानी रुक जाने से, परिणाम धर्म से शिथिल होने लगें; तो उसे उपदेश आदि देकर परिणामों को धर्म में स्थिर करने के लिये कहे - भो ज्ञानी! भो धर्म के धारक! तुम सचेत हो जाओ। क्यों कायरता धारण करके धर्म में शिथिल हो रहे हो? क्यों रोग के कष्ट से धर्म से विचलित होते हो? तुम ज्ञानी होकर क्यों ऐसी भूल करते हो? यह असातावेदनीय कर्म अपना समय पाकर उदय में आ गया है, अब यदि कायर होकर, दीन होकर, रुदनविलाप आदि करते हये भोगोगे तो कर्म नहीं छोड़ेगा, कर्म के दया नहीं होती है कि वह तम्हें रो
रोता, विलाप आदि करता हुआ देख कर अपना रस देने में पीछे हो जायेगा। यदि धीरपना धारण करके भोगोगे तो भी कर्म नहीं छोड़ेगा।
___ कोई देव, दानव, मंत्र, तंत्र, औषधि, वैध आदि तथा स्त्री, पुत्र, मित्र, बांधव, सेवक, सुभट आदि उदय में आये कर्म का हरण करने में समर्थ नहीं हैं; यह तुम भी अच्छी तरह जानते हो। अब इस बेदना के समय में कायर होकर अपना धर्म, यश, परलोक आदि को क्यों बिगाड़ते हो? इनको बिगाड़कर स्वच्छन्द चेष्टा , विलाप आदि करने से वेदना नहीं घटेगी। ज्यों ज्यों कायर होवोगे त्यों-त्यों वेदना का दुःख बढ़ेगा। इसलिये अब धारण करके धर्म की परम शरण ग्रहण करो।
संसार में नरक के तथा तिर्यंचों के क्षुधा, तृषा, रोग, संताप, ताड़न, छेदन, भेदन, मारन, शीत, उष्ण आदि के घोर दुःख असंख्यात काल पर्यन्त अनेक बार अनन्त भव धारण करके भोगे हैं। अभी यह तुम्हें कितना-सा दुःख है? वह तो थोड़े ही समय में निर्जर जायेगा। यह रोग की वेदना, देह को मारेगी, तुम्हारे चेतन स्वरूप आत्मा को नहीं मारेगी। देह का मरण तो अवश्य होगा ही। जो भी देह धारण की है उसका मरण अवश्यंभावी है। अतः तुम अब सचेत होओ, यह कर्म को जीतने का अवसर है। ___अब भगवान पंच परमेष्ठी की शरण ग्रहण करके अपने अजर, अमर, अखण्ड, ज्ञाता दृष्टा स्वभाव को ग्रहण करो। ऐसा अवसर पुनः प्राप्त होना दुर्लभ है।
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