Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ- सम्यग्दर्शन अधिकार
[२३१ इस जीव ने अनादिकाल से मिथ्यात्व नाम के कर्म के वश में होकर अपने स्वरूप की और पर द्रव्यों के स्वरूप की पहिचान नहीं की। जो पर्याय कर्म के उदय से प्राप्त की उसी पर्याय को अपना स्वरूप जान लिया। अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान करने में अंधा होकर, अपने स्वरूप से भ्रष्ट रहकर, चारों गतियों में भ्रमण करता आ रहा है। यह जीव देव-कुदेव को, धर्म-कुधर्म को, सुगुरु-कुगुरु को जानता नहीं है; पुण्य-पाप का, इस लोक-परलोक का , त्यागने योग्यग्रहण करने योग्य का, भक्ष्य-अभक्ष्य का , सत्संग-कुसंग का, शास्त्र-कुशास्त्र का विचार ही नहीं करता है। कर्म के उदय के रस में तन्मय होकर, सदाकाल ही कष्ट उठाता रहा है।
__ कोई अकस्मात् काललब्धि के योग से उत्तम कुलादि में जिनेन्द्रधर्म प्राप्त हुआ है, जिससे वीतराग सर्वज्ञ के अनेकान्तरूप परमागम के प्रसाद से प्रमाण, नय, निक्षेपों द्वारा निर्णय करके, परीक्षाप्रधानी होकर, वीतरागी सम्यग्ज्ञानी गुरूओं की कृपा से ऐसा निश्चय किया - मैं एक जाननेवाला , ज्ञायकरूप अविनाशी, अखण्ड, चेतना लक्षण, देहादि समस्त पर द्रव्यों से भिन्न आत्मा हूँ। देह , जाति, कुल , रूप, नाम इत्यादि मुझसे अत्यन्त भिन्न है। राग, द्वेष, काम, क्रोध, मद, लोभादि कर्म के उदय से उत्पन्न हुए मेरे ज्ञायक स्वभाव में विकार है। जैसे स्फटिक मणि स्वयं तो स्वच्छ श्वेत स्वभाव है, उसमें डांक के संसर्ग से काला, पीला, लाल, हरा अनेक रंग का दिखता है; उसी प्रकार मैं आत्मा स्वयं तो स्वच्छ, ज्ञायकभाव, निर्विकार, टंकोत्कीर्ण हूँ, मोह कर्म के उदयजनित राग द्वेष आदि उसमें झलकते हैं, वे मेरा रूप नहीं है, पर हैं। इस प्रकार अपने स्वरूप का निश्चय हुआ है।
निःशंकितगुण : सर्वज्ञ, वीतराग, परम हितोपदेशक तथा अठारह दोष - क्षुधा, तृषा, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय, विस्मय, राग, द्वेष, निंदा, चिन्ता, स्वेद, मद, मोह, खेद, अरति का जिनके अत्यन्त अभाव हुआ है, तथा जिनके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख , अनन्तवीर्य इत्यादि अनन्त आत्मीक अविनाशी गुण प्रकट हुए हैं, ऐसे आप्त ही हमारे वंदन, स्तवन, पूजन करने योग्य हैं। अन्य कामी, क्रोधी, लोभी, मोही, स्त्रियों में आसक्त, शस्त्रादि धारण किये, कर्म के आधीन, इंद्रिय ज्ञान के धारक, सर्वज्ञता रहित हैं वे मेरे वंदन स्तवन, पूजन योग्य नहीं हैं। जो चोरों में शिरोमणि, जारों में शिरोमणि है, वह कैसे आराधना योग्य होगा ?
सर्वज्ञ वीतराग का उपदेशित. प्रत्यक्ष व अनमान आदि से जिसमें बाधा नहीं आती, छ: काय के सभी जीवों की हिंसारहित धर्म का उपदेशक, आत्मा का उद्धारक, अनेकान्तरूप वस्तु को साक्षात् प्रकट करने वाला ही आगम हैं; वही पढ़ने, पढ़ाने, सुनने, श्रद्धान करने, वन्दने योग्य है। रागी द्वेषी के कहे गये, विषयानुराग व कषाय बढ़ानेवाले, जिनमें हिंसा करने के उपदेश है, ऐसा प्रत्यक्ष व अनुमान से बाधित एकान्तरूप शास्त्र सुनने, पढ़ने, वंदने योग्य नहीं हैं।
जिनके विषयों की वाञ्छा का, कषाय का, परिग्रह का, आरम्भ का अत्यन्त अभाव हो गया है, केवल आत्मा की उज्ज्वलता करने में उद्यमी, ध्यान-स्वाध्याय में अत्यन्त लीन, स्वाधीन, कर्मबंध
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