Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार]
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अमर समझता है, अन्य को अनित्य समझता है, अपने को न्यायमार्गी समझता है, अन्य जीवों को अति लोभी समझता है। अपने को प्रभु समझता है, धन रहित को रंक समझता है। आरंभ परिग्रह बढ़ाते हुए डरता नहीं है, रुकता नहीं है। तृष्णा बहुत बढ़ती जाती है, मरते समय तक भी संतोष धारण नहीं करता है। ___ अपयश के कार्य करता हुआ भी अपने को यशस्वी समझता है। कपटी को – छली को अपना धन ठगा देता है। बहुत धूर्त, कपटी, छली को अपना कार्य साधनेवाला, पुरुषार्थी, प्रवीण समझता है। सत्यवादी मर्यादा सहित प्रवृत्तिवाला निरपेक्ष हो उसे मूर्ख समझता है।
जहाँ अपना अभिमान बढ़ता है, कषाय पुष्ट होती है, अपना नाम होता जानता है वहाँ जमीन में मन्दिर में, बगी-बगीचों में, विवाह में, यात्रा में, किराये में बहुत धन खर्च करता है। मंदिर आदि में भी अपनी उच्चता दिखाने के लिये, पंचों में जहाँ अभिमान बढ़ता है वहाँ धन खर्च करता है, जीर्णमंदिर आदि में नहीं देता है।
निर्धन, भूखों का पालन करने के लिये एक पैसा नहीं देता; दुर्बल, दीन, अनाथ, रोगी, वृद्ध , विधवा इनका पालन करने के लिये धन-पैसा कभी खर्च नहीं करता है। निर्धन दुःखी को दिया धन को नष्ट हुआ समझता है, स्वयं भी अच्छा भोजन नहीं करता है क्योंकि घर में सभी कुटुम्ब को खिलाना पड़ेगा।
ऐसा अभिमान करता है - देखो हमारे घर पर बहुत धर्मात्मा, तपस्वी, पंडित आते हैं, तथा अनेक आवेंगे क्योंकि सभी देशी विदेशी गुणवान जैनियों का बड़ा ठिकाना हमारा ही घर है, हम ही दातार हैं, और दूसरा ठिकाना है कहाँ ? अन्य कितने ही अपने घर पर कार्य करने वाले तथा धर्म कार्य पर नियुक्त किये हैं उनकी भी धन के मद से बड़ा अवज्ञा करता है - इनकी हम पालना करते हैं, हमसे छूटने पर इनका कहाँ ठिकाना है ?
ऐसे पंचमकाल के धनवानों के ज्ञान के ऊपर मोह का बड़ा अंधेरा छाया हुआ है। पूर्वजन्म में जिनधर्म रहित कुतपस्या की थी, कुपात्र को दान दिया था; इस कारण धन संपदा मिली है।
अब धनसंपदा को छोड़कर धन की मूर्छा से मरकर कषायों की मंदता-तीव्रता के प्रभाव के अनुसार सर्प, तिर्यंच, वृक्ष मधुमक्खी आदि योनियों में उत्पन्न होकर नरक आदि में बहुत समय तक भ्रमण करेंगे। यह धन की मूर्छा इस लोक में भी बैर तथा अपयश का कारण है। कृपण की सभी लोग निंदा-अपवाद करते हैं, कृपण के परिणाम निरंतर दुःखी और दुर्ध्यान रूप रहते हैं।
दान के पात्र तथा दान का फल : दान के मार्ग में लगाया हुआ धन अपना जानो। पात्र दान में गया धन मरण के समय परिणामों में उज्ज्वलता कराकर अंतमूहूर्त में स्वर्ग की संपदा प्राप्त करा देता है। यहाँ उत्तमपात्र तो निर्ग्रन्थ वीतरागी समस्त मूलगुण - उत्तरगुण के धारक, दशलक्षण धर्म के धारक, बाईस परीषह सहनेवाले साधु हैं। दर्शन (प्रतिमा) से लगाकर उद्दिष्ट आहार का त्याग तक ग्यारह स्थान (प्रतिमायें) श्रावक के हैं। वे (प्रतिमाधारी) श्रावक मध्यममात्र हैं।
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