Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
१९०]
किसी पुण्याधिकारी को यहाँ यदि सत्संगति मिल जाय तथा जिन सिद्धान्त का श्रवण करना मिल जाय तो नये बीज से जिनधर्म ग्रहण हो जाता है। इसकाल में यदि जैनी धनवान भी हो, धर्म को भी समझने लगे, त्याग आखड़ी भी ग्रहण करले तो भी दान में धन खर्च नहीं कर सकता है। लाखों का धन छोड़कर मर जाता है, परन्तु उसका आधा चौथाई धन भी दान, धर्म में नहीं लगा सकता है ( दान देने का ऐसा भाव ही नहीं होता है)। ___ इस पंचमकाल में धनाढ्य जीवों के भाव : इस कलिकाल के धनाढ्य पुरुषों की कैसी रीति तथा परिणाम होते हैं वे बतलाते हैं – परिणामों में क्रोध बढ़ता है, अपने पुरुषार्थ का बड़ा अभिमान बढ़ता है, वात्सल्यता तो जड़-मूल से ही नहीं रह जाती है। दूसरे के किये हुए कार्य की सराहना नहीं करता है। सभी की अक्ल बुद्धि थोड़ी दिखती है, दया रही ही नहीं है, अन्य किसी पुरुष का वचनादि द्वारा अपमान तिरस्कार करते हुए भय नहीं लगता। कोई अन्य पुरुष धर्म के नीतिवाले वचन बोलता है, तो उनका खोटी युक्तियों द्वारा खण्डन करता है।
धर्मात्मा पुरुष विनय सहित भी भाषण करता है, तो भी इसके मन में भय हो जाता है कि कभी मुझसे कुछ मांगेगा। निर्वांछक-साधर्मी से भी भयभीत रहता है कि वह कभी मुझे धन खर्च करने का उपदेश देगा। अभिमान दिन प्रतिदिन बढ़ता जाता है, स्वभाव में तेजी बढ़ती जाती है। यदि अपना कार्य हो तो उसको बहुत शीघ्रता से कराना चाहता है। सेवक आदि के कष्टदुःख को नहीं देखता है। अपना प्रयोजन साधना चाहता है, दूसरे के प्रयोजन तथा दुःखक्लेश को तुच्छ जानता है। सम्पदा बढ़ती है उसके साथ-साथ खर्च बढ़ता है, खर्च के साथ दुःख बढ़ता है, दिन प्रतिदिन खर्च घटाने का ही परिणाम रहा करता है।
अपने भोगपभोग की वस्तु खरीदने में ऐसा परिणाम रहता है कि आधी कीमत में आ जाय, कुछ कम ले जाय; मुझे बड़ा आदमी समझकर बहुत कीमत की वस्तु थोड़े मूल्य में दे देवे; किसी निर्धन का तथा लूट का माल बहुत कम मूल्य में मिल जाये; उसका बड़ा हर्ष मानता है, संचय करते-करते तृप्ति नहीं होती है।
कोई अपने को इसके द्वारा ठगाया जाय उससे प्रीति करता है, कोई धनवान दिखाई दे तो उससे अपने को ठगा लेता है, धनवान पापी भी होय तो उससे प्रीति करता है, धनवान अधर्मी भी होय तो उसकी बुद्धि को बड़ी मानता है। धनवानों के निकट अपनी उदारता दिखाता है, निर्धन के निकट अपने अनेक दुःख रोता है, दुःखी को देखकर उसे अपने बहुत दुःख सुनाता है।
अन्य की व निर्धन की आबरू (इज्जत) छोटी जानता है, धनरहित को अपनी वस्तु उधार देते समय बड़ा अविश्वास करता है, धन रहित को चोर दगाबाज समझता है। आप दूसरे का सर्वस्व हड़पकर खा जाय तो भी अपने को सच्चा जानता है, अपनी बड़ाई करता है।
अपने कर्त्तव्य की प्रशंसा करता है, दूसरे के उत्तम कार्यों में भी खोट निकालता है। अपने को निस्पृह-निर्वांछक समझता है, जगत के अन्य जीवों को लोभी समझता है। अपने को अजर
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