Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
१७४]
अन्यमतवाले तो कन्यादान देने का बहुत बड़ा फल कहते हैं, लाख यज्ञ करने के बराबर फल कहते हैं, करोड़ ब्राह्मणों को भोजन कराने से अधिक, करोड़ गाये दान करने से अधिक फल कहते हैं; अन्य की कन्या का विवाह करा देने को भी बड़ा धर्म कहते हैं। जिनधर्म में तो इसको संसार परिभ्रमण का कारण कुदान कहा है।
अन्य भी संसार समुद्र में डुबोनेवाले मिथ्यादृष्टि, लोभी, विषयों के लम्पटी लोगों द्वारा कहे कुदान त्यागने योग्य हैं। स्वर्ण की गाय, घृत की गाय, चांदी की गाय बनाकर दान में देते हैं तथा लेनेवाला भी घी की गाय को, तिल की गाय को, लपसी की गाय को, शक्कर की गाय को खा जाता है। सोने की गाय को, चांदी की गाय को कटाता है, आग में गलाता है (इसमें बहुत भाव हिंसा होती है)। गाय की पूँछ में तेतीस करोड़ देवता व अड़सठ तीरथ कहते हैं। दासी-दास का दान देते हैं, रथ दान देते हैं, संक्रांति-ग्रहण-व्यतीपात आदि मानकर दान देते हैं, यह सब मिथ्यात्व का प्रभाव है।
कहते हैं कि - मृतक को तृप्त करने के लिये ब्राह्मण आदि को भोजन कराओ। विचार कर देखो! ब्राह्मणों के जीमने से भोजन मृतक तक कैसे पहुँचेगा ? दान तो पुत्र देवे, पिता पाप से छूट जाय ? बहुत समय पहले के मरे हुए मनुष्य की हड्डी गंगा में डालने से मृतक का मोक्ष कैसे हो जाता है ? गया में जाकर श्राद्ध करने से इक्कीस पीढ़ी का उद्धार होना कहते हैं ? गया में पिण्डदान करने से दस पीढ़ी पिछली, दस पीढ़ी अगली, एक यह स्वयं – इस प्रकार इक्कीस पीढ़ी संसार में कुगति में पड़ी हुई, वहाँ से निकलकर वैकुण्ठ में जाकर रहने लगती हैं ? भविष्य में बेटा, पोता तथा उनकी संतान चाहे जितने पाप करें, गया में श्राद्ध या पिण्डदान इक्कीस पीढ़ी में से किसी एक ने कर दिया तो सब की मुक्ति हो जायेगी; इसलिये कोई पाप का भय नहीं करो ?
श्राद्ध में ब्राह्मणों को मांस भक्षण कराते हैं, मांस द्वारा देवाताओं को तृप्त करते है। देवता, दुर्गा, भवानी को जीवों का, राक्षसों का , तिर्यंचों का खून पीने से बहुत तृप्त होना मानते हैं, देवियों को बकरा, भैंसा काटकर बलिदान करते हैं। पापी मनुष्य खोटे शास्त्र बनाकर अपने मांस भक्षण के लिये बहत पाप कर्म करके स्वयं नरक के मार्ग पर जा रहे हैं तथा दसरों को भी नरक पहुंचा रहे हैं। जिव्हा इंद्रिय का लोलुपी-लोभी कौन घोर पाप कर्म नहीं करता है? वे पापी मनुष्यपना में स्यालनी, स्याल, कौआ, व्याघ्र जैसा मांस भक्षण रूप आचरण करते हैं। जिनके ऐसे घोर पाप के शास्त्र उनके धर्म में और म्लेच्छों के धर्म में कोई अंतर नहीं है। ये वाक्य म्लेच्छों के हैं। वेद के वाक्यों का ऐसा अर्थ बतलाकर लोगों में अज्ञान पैदा कर के शिकार में धर्म बता दिया।
जो जलचर, थलचर, नभचर जीवों के मारने में धर्म बताते हैं उन्होंने सारे जगत को भ्रद्ध किया है और कर रहे हैं। जिनका देवता मुण्ड माला पहिनता है, मांस खाने में तथा खून पीने में लीन है उसके सेवकों के पास की कथा का क्या कहना? उन कुपात्रों को दान देना तो महादुख देनेवाला कुदान है। इस प्रकार कुदान के बहुत भेद हैं। कुदान के देने से तथा कुदान के लेने से नारक
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