Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
जिनको मुनि श्रावक के धर्म का, सच्चे सम्यग्दर्शन आदि का ज्ञान ही नहीं है वे कैसे पात्रपना प्राप्त सकते हैं ? मिथ्यादर्शन के भावों सहित, आत्मज्ञान रहित, लोभी बनकर जगत में धन आदि के तथा मिष्ट आहार के इच्छुक होकर बहुत घूम रहे हैं, वे सब अपात्र है; इसलिये पात्रदान अति दुर्लभ ही है।
यहाँ ऐसा विशेष जानना : प्रथम तो इस कलिकाल में भावलिंगी मुनीश्वर तथा अर्जिका व क्षुल्लक का समागम है ही नहीं। यदि कदाचित् चिंतामणि रत्न के समान किसी महाभाग्यवान पुरुष को उन्हे दान देने का अवसर मिले तो आधा सेर अन्न का भोजन मात्र उनके लिये देना चाहिये। यदि क्षुल्लक या अर्जिका के वस्त्र कभी जीर्ण हो जाय तो अर्जिका तो एक सफेद वस्त्र ही ग्रहण करके पुराना वस्त्र वहीं छोड़ जाय, तथा क्षुल्लक एक लंगोटी एक सफेद ओछा वस्त्र जिससे सम्पूर्ण शरीर नहीं ढक सके ऐसा थोड़े मोल का लेकर पुराना वस्त्र वहाँ ही छोड़ जाय, अन्य तिल-तुष मात्र भी ग्रहण नहीं करते।
धन का सदुपयोग करो : ऐसे सुपात्रों को दान देने में कुछ भी धन खर्च नहीं होता है। बिना न्योता बिना बुलाया कभी अचानक आ जाय तो गृहस्थ अपने स्वयं के लिये बनाये रूखे या चिकने भोजन में से दान का हिस्सा निकाल कर दे देता है।
धनवान लोग अपने धन को किस कार्य में लगाकर सफल करें ? यदि भोगों में लगाते हैं तो भोग तो तृष्णा के बढ़ानेवाले हैं, इंद्रियों को विकल करनेवाले हैं, महापाप में प्रवर्तन कराकर नरक आदि कुगति को प्राप्त कराते हैं, जीव का हित-अहित जानने के ज्ञान को लुप्त कर देते हैं। यदि मोहवश पुत्र आदि को दे देते हैं तो पुत्र आदि तो ममता को बढ़ानेवाले हैं, बिना दिये ही सर्वस्व ले लेंगे। बहुत पापाचार करके, दुर्ध्यान से, सम्पदा में ममता धारण करके, धर्म का विध्वंस करके सम्पदा बढ़ाई है - कमाई है तो उसका आधा हिस्सा तो धर्म के लिये, दया के जो पात्र हो उन्हें देकर अपना हित करो। सम्पदा छोड़कर परलोक जाओगे, वहाँ से पुत्र, पौत्र आदि को देखने को कैसे आओगे ?
कुटुम्ब का सम्बन्ध तो तुम्हारे इस चर्ममय मुख, नासिका, नेत्र आदि रूप शरीर से है। इसकी तो जलकर राख हो जायगी तथा मिट्टी में मिल जायगी। कुटुम्ब तुम्हें अन्य पर्याय में देखने आता नहीं है, तुम कुटुम्ब को देखने आते नहीं हो क्योकि जिन नेत्र, कर्ण आदि के द्वारा तुम कुटुम्ब को जानते हो उन नेत्रादि की तो राख बनकर उड़ जायगी, तब तुम कुटुम्ब को कैसे जानोगे ? पुत्रादि कुटुम्ब का सम्बन्ध तुम्हारे शरीर के चाम से है, तुम्हारे आत्मा से नहीं है, तुम्हारे आत्मा को तो वे जानते ही नहीं हैं। जब तुम्हारे शरीर के चाम की राख उड़ जायगी, तब कुटुम्ब के लोग तुमसे कहाँ सम्बन्ध करेंगे, कैसे मिलेंगे?
इसलिये हे ज्ञानीजनो! जीवन थोड़ा है, पुत्र आदि का सम्बन्ध भी थोड़े समय को है, संसार में कोई शरण देनेवाला नहीं है, अकेला एक धर्म ही शरण है। यह धन है, वह भी तुम्हारा नहीं
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