Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार]
[१८५ कितने ही स्त्री पुत्रादि रहित हों, उन्हें धर्म के कार्य में लगा देना, खान-पान का दुःख मिटा देना। कितने ही वृद्ध हो गये, उद्यम करने की सामर्थ्य ही नहीं रही, कितने ही जिनधर्मी धर्म में सावधान हैं तो भी इंद्रियाँ थक गई है, शरीर रोग सहित है, सहायता बिना समता नहीं रहती, उनका स्थितिकरण धनवान से ही बन सकता है।
कितने ही पुत्रादि रहित हैं, उन्हें धर्म का आश्रय ग्रहण कराना। कितनी ही श्राविकायें विधवा हो गई, उनके भोजन वस्त्र का ठिकाना नहीं, उनपर करुणाबुद्धि करके भोजन वस्त्रादि का साधन कराकर धर्म में लगा देना चाहिये। धनवान पुरुषों की सहायता पाकर कितने ही पुरुष-स्त्री कुधर्म का त्याग करके दृढ़ श्रद्धानी हो जाते हैं। कितने ही अणुव्रत आदि ग्रहण कर लेते हैं।
कितने ही सचित्त का त्याग श्रद्धान सहित कर देते हैं। कोई पर्व के दिनों में उपवास, ब्रह्मचर्य आदि ग्रहण कर लेते हैं। कोई स्व स्त्री के त्यागी, आरम्भ के त्यागी, परिग्रह के त्यागी, पापों की अनुमोदना के त्यागी, उद्दिष्ट आहार के त्यागी – इस प्रकार श्रावक के ग्यारह स्थानों (प्रतिमाओं) को धारण करके दान के पात्र बन जाते हैं। धनवान पुरुषों की सहायता से उन्हें धर्म पर चलता देखकर अनेक दूसरे लोग भी धर्म के मार्ग की प्रवृत्ति में लग जाते हैं।
धनवान पुरुषों को चाहिये कि वे विद्या पढ़ने के स्थान बना दें. पढनेवालों को जीविका देकर व्याकरण विद्या, काव्य विद्या, गणित विद्या, तर्क विद्या आदि अनेक विद्या पढ़ाने की पाठशालाओं की स्थापना कर दें, तो जैनियों के सैकड़ो बालक विद्या के पढ़ने में लग जायेंगे। प्रति वर्ष दस-बीस विद्वान् पढ़कर तैयार होने लगेंगे, तो धर्म की परम्परा चलने लगेगी। कितने ही विशेष बद्धिमान हों उन्हें आजीविका देकर निराकल कर दें, तो धर्म की प्रवृत्ति चलती जायगी।
अनेक ग्रन्थों को लिखवाना, पढ़नेवालों को पुस्तक देना, ग्रन्थ को शुद्ध करने में शुद्ध करने वालों को निराकुल कर देना, ज्ञान के अभ्यास करनेवालों से प्रीति करना, अपने आत्मा को ज्ञान के अभ्यास में लगाना, अपनी संतान को तथा कुटुम्बियों को ज्ञान के अभ्यास में लगाना, जैसे वने वैसे लोगों की शास्त्र के अभ्यास में रुचि करानी चाहिये। ये शास्त्र धर्म के बीज हैं। यदि लोगों को शास्त्रों का ज्ञान हो जाये तो सैकड़ों दुराचार नष्ट हो जाय, सम्यग्ज्ञान ही व्यवहार तथा परमार्थ दोनों को उज्ज्वल कर देता है। इसलिये शास्त्र पढ़ाने के समान दान दूसरा नहीं है।
रोग मिटानेवाली कितनी ही प्रासुक औषधियाँ रोगियों को देना। जो निर्धन मनुष्य हैं उन्हें औषधि तैयार मिल जाय तो यही बड़ा उपकार होता है। कोई निर्धन नहीं हो उनका भी औषधि से बड़ा उपकार होता है। निर्धन तथा दुःखितजनों को औषधिदान देने के समान उपकार दूसरा नहीं है। कितने ही निर्धन लोगों को औषधि मिलती ही नहीं है, करनेवाला नहीं मिलता है, बिना सहायता के औषधि बन नहीं सकती है। औषधि तैयार मिल जाय तो उसको बहुत-करोड़ों के धन के लाभ के बराबर है। रोग मिटाने के बराबर कोई दान नहीं, यह बड़ा अभयदान है।
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