Book Title: Ratnakarandak Shravakachar
Author(s): Samantbhadracharya, Mannulal Jain
Publisher: Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
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[श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार
जो धन अपने पास बचा है, उस में से पुत्रादि के हिस्से का धन तो पुत्रादि को देकर अलग करना, तथा दान के लिये धन अलग रखकर उसे दूसरों के उपकार में, धर्म की प्रवृत्ति के लिये, दान देने में खर्च करना चाहिये। जो नया धन पैदा हो उसमें भी चतुर्थ भाग, छठा भाग, आठवाँ भाग तथा कम से कम दसवाँ भाग तो पुण्य-दान-धर्म के कार्यों में धनवानों को तथा निर्धनों को सभी को ही दान का हिस्सा अलग रखकर खर्च करना चाहिये। जिसका पेट भी पूरा नहीं भरता हो, आधा चौधाई पेट ही भोजन आदि मिलता है, उसे भी दान-पुण्य-धर्म का हिस्सा उत्कृष्ट चौथाई भाग, जघन्य दशवाँ भाग, मध्यम छठाँ या आठवाँ भाग अलग रखकर दुःखी, भूखे लोगों को व जिनपूजन आदि कार्यों में देना-खर्च करना श्रेष्ठ है। दान बिना गृह श्मशान है, पुरुष मृतक है, कुटुम्बी गृद्ध पक्षी के समान है, जो इसके धन रूपी मांस को निकाल-निकाल कर खाते हैं।
__जो धनवान गृहस्थ होते हैं वे जैनियों की अनेक प्रकार से सुरक्षा पालना करते हैं। जो धर्म में शिथिल हो रहें हों उन्हे धनी पुरुष आदर देकर, मीठे वचन बोलकर धर्म में दृढ़ कर देते हैं।
कितने ही अपनी समाज के लोग काम नौकरी करने योग्य होवें तो उन्हें काम देना, उनसे काम भी लेना तथा उनके भरण पोषण की व्यवस्था भी कर देना चाहिये। कितने ही स्वयं कमाकर धन पैदा करने योग्य हों उन्हे पूंजी का सहारा देकर धन भी बनाये रखते हैं, तथा उसे पाँच-पचास रुपया की आमदानी करा देते हैं। कितने ही को अपने व्यापार में शामिल करके उनके निर्वाह योग्य आजीविका बना देना। कितने ही को धीरज, प्रतीति जमाकर धन पैदा करने योग्य कर देना। कितने ही को कहकर रोजगार धंधे में लगा देगा। कितने ही को दलाली वगैरह में लगाकर धंधे से लगा देना चाहिये।
पुण्यवाले धनवान की मदद के बिना आश्रय पकड़े बिना निर्धन मनुष्य का व्यापार आदि में अपने पैरों पर खड़ा होना बड़ा कठिन है। यदि आप स्वयं धर्मात्मा हैं तो अपना धन बिगड़ जाने का भय नहीं करना चाहिये। साधर्मी के उपकार आदि कार्यों में जो धन काम आ जाये वही मेरा धन है। जो धन साधर्मी के काम में नहीं आया वह धन मेरा नहीं है।
कितने ही पुरुष पहले बड़े धनवान थे, प्रतिष्ठावान थे उनके कर्म के उदय से धन नष्ट हो गया, आजीविका नष्ट हो गई और खान-पान का भी ठिकाना नहीं रहा। घर में स्त्रियों-बच्चों को भी बड़ा कष्ट है। ऐसे पुरुषों से मेहनत मजदूरी होती नहीं है, ओछा अयोग्य काम नहीं कर सकते, बड़ा आदमी समझकर कोई नौकरी पर नहीं रखता है; धन, आभरण, वस्त्र, पात्र सभी बेचकर खा लिये हैं, अब किससे कहें, क्या उपाय करें ?
ऐसे प्रतिष्ठावान पुरुष को आजीविका से लगा देना, चिगते को हाथ का सहारा देकर दुःख के समुद्र में से निकाल लेना, उसे धर्म से - न्याय में लगाकर थोड़ा बहुत सहारा देकर खड़ा कर देना, जितनी योग्यता हो उसके अनुसार धीरज धराना, अन्य किसी के यहाँ काम पर रख देना, जिस तरह रोटी का बंदोबस्त हो जाय वैसा करना, धर्म से जोड़ देना यही बड़ा उपकार है।
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